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________________ नदियों इत्यादि के द्वारा संसार के विकास को रूपायित किया गया है। आचार्य जी के मत में अनन्तानंत अलोकाकाश के बहुमध्यभाग में स्थित जीवादि पांच द्रव्यों में व्याप्त और जग-श्रेणी के घन प्रमाण से युक्त यह लोकाकाश है। बुद्धिमान् मनुष्य सब समय सर्वत्र व्याप्त रहने वाले जिनेन्द्र भगवान् के वचन रूपी उत्तम दीपकों के सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा से विहीन अधोलोक के अंधकार को नष्ट कर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखते हुए प्रभुत्व को प्राप्त होते हैं। इसमें आश्चर्यजनक कुछ नहीं है, क्योंकि तीन लोकों में जिनेन्द्र रूपी सूर्य के द्वारा प्रकाश के उत्पन्न होने पर अंधकार कहाँ रह सकता है ? प्रस्तुत अध्याय में उपर्युक्त सभी पक्षों का वर्णन पर्याप्त विस्तार और स्पष्टता के साथ हुआ है। अध्याय के अन्त में आचार्य जी ने जीवमात्र के उद्बोधन के लिए यह मत व्यक्त किया है : "लज्जा से रहित, काम से उन्मत्त जवानी में मस्त, परस्त्री में आसक्त, और दिन-रात मैथुन सेवन करने वाले प्राणी नरकों में जाकर घोर दुःख को प्राप्त करते हैं।" तृष्णा प्रभृति मायात्मक प्रपंच का भी उन्होंने तीव्रता के साथ खंडन किया है : 'पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्र के जीवनार्थ जो लोग दूसरों को ठगकर तृष्णा को बढ़ाते हैं तथा पर के धन को हरते हैं, वे तीव्र दुःख को उत्पन्न करने वाले नरक में जाते हैं।” संक्षेप में, प्रस्तुत अध्याय मात्र विवरणात्मक न होकर ओजमयी उद्बोधनक्षमता से अनुप्राणित है। _प्रस्तुत ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में जैन धर्मानुसार काल के स्वरूप और उसके तीन रूपों का वर्णन हुआ है। भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्षों की परिकल्पना भी प्रस्तुत अध्याय में विस्तृत रूप से विद्यमान है। ये कल्पवृक्ष इस प्रकार हैं-गृहांग, भोजनांग, भाजनांग, पानांग, वस्त्रांग, भूषणांग, माल्यांग, दीपांग, ज्योतिरांग, तुर्यांग। इन सभी से भोगभूमि के जीवों को नाना प्रकार की भोगोपभोग-सामग्री प्राप्त होती है। इसके अनंतर जैन धर्म द्वारा मान्य चौदह कुलकरों का विशेष परिचय दिया गया है। कुलकरों का दूसरा नाम मनु भी है। सभी कुलकर पूर्व भव में विदेह क्षेत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे। मिथ्यात्व दशा में उन्होंने मनुष्य-आयु का बंध कर लिया था। फिर उन्होंने मुनि प्रभृति सत्पात्रों को विधि-सहित भक्तिपूर्वक आहार-दान दिया, जीवों का दुःख करुणा भाव से दूर किया। विशिष्ट दान के प्रभाव से वे भोगभूमि में उत्पन्न हुए। इनमें से अनेक कुलकर पूर्वभव में अवधिज्ञानी थे। वे इस भव में भी अवधिज्ञानी हुए। अतः उन्होंने, अवधिज्ञान से जानकर, अपने समय के लोगों की समस्याएं सुलझायीं। अन्य कुलकर विशेष ज्ञानी थे, अतः वे जाति-स्मरण के धारक हुए। उन्होंने भी जनता का कष्ट दूर किया। इस प्रकार कुलकरों के सम्पूर्ण परिचय और उनके क्रियाकलाप को प्रस्तुत अध्याय में वर्णनात्मक-व्याख्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान तीर्थकरों-भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक–के जीवन-चरित्र भी यथेष्ट विस्तृत रूप में इस अध्याय में समाविष्ट हैं । तीर्थंकरों के परिचय की विशेषता यह है कि पूर्वभव एवं वर्तमान परिचय दोनों को साथ-साथ दिया गया है। आचार्य-श्री की शैली यहां इतनी स्पष्ट और रोचक है कि पाठक सहज ही सर्वस्व ग्रहण करते हुए आख्यान और दर्शन का आनन्द एक साथ पाता है। काल-वर्णन से लेकर तीर्थंकरों के जीवन-वर्णन तक का आख्यानयुक्त इतिहास प्रस्तुत अध्याय की अनुपम देन है। चतुर्थ अध्याय का विशेष आकर्षण है-रीतिकालीन कवि नवलशाह कृत 'वर्धमान पुराण' का पहली बार प्रकाशन । इसका सम्पूर्ण श्रेय आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी को है, जिन्होंने इस अप्रकाशित ग्रंथ को प्रकाशित कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस काव्य-ग्रन्थ पर विस्तृत रूप में आगे विचार किया जाएगा। चतुर्थ अध्याय में ही सर्वश्री जुगलकिशोर मुख्त्यार, डॉ० जैकोबी, मुनि नगराज तथा अगरचन्द नाहटा के शोधपूर्ण लेख संकलित हैं । जुगलकिशोर जी ने भगवान् महावीर के जीवन-दर्शन का परिचय देते हुए उनके निर्वाणकाल पर प्रकाश डाला है । डॉ जैकोबी ने भी भगवान् महावीर के काल-निर्णय में सारगर्भित भूमिका निभायी है। मुनि नगराज ने महावीर स्वामी का कालनिर्णय तर्कपूर्ण पद्धति के आधार पर किया है। नाहटा जी के लेख में महावीर-शासन की विशेषताओं की झलक मिलती है। 'गौतम-चरित्र', 'भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध', 'यजुर्वेद में महावीर-उपासना', 'भगवद्गीता में तीर्थंकर-उपासना' इत्यादि लेखों के माध्यम से भी प्रस्तत अध्याय में अत्यधिक ज्ञानवर्द्धक सामग्री को स्थान दिया गया है। जैन धर्म और विज्ञान, अहिंसा धर्म, धार्मिक निर्दयता आदि सामयिक विषयों पर उपलब्ध विचारों के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ की गरिमा असन्दिग्ध रूप में वद्धित हुई है। इस कोटि की प्रभावशाली सामग्री का प्रस्तुतीकरण आचार्य श्री की कर्मठता का प्रमाण है। 'वर्धमान पुराण' का संशोधन और सम्पादन करके आचार्य देशभूषण जी ने जैन साहित्य की समृद्ध परम्परा में एक और महत्त्वपूर्ण कड़ी जोड़ी है। वास्तव में यह रचना जैन हिन्दी-काव्य में अपना समुचित स्थान बनाने में भाव, भाषा, छन्द, अलंकार आदि सभी दृष्टियों से समर्थ है । देशभूषण जी के काव्य-प्रेमी मन ने 'वर्धमान पुराण' नामक काव्य-ग्रन्थ को संकलित करके भारतीय समाज के समक्ष अपनी सूझ-बूझ तथा धार्मिक साहित्य के प्रति अटूट लगन का प्रमाण दिया है। 'वर्धमान पुराण' ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का परिचय इसके नाम से ही हो जाता है। इसमें भगवान् महावीर के पूर्वजन्मों तथा वर्तमान जीवन का परिचय प्राप्त होता है। कविवर नवलशाह कृत प्रस्तुत ग्रन्थ ब्रजभाषा का एक सरल काव्य-ग्रन्थ है। पुराणपरम्परा के अनुसार इसमें मंगलाचरण के अनंतर वक्ता और श्रोता के लक्षण प्रथम अधिकार में दिए गए हैं। ग्रन्थ में कुल मिलाकर सोलह अधिकार हैं । द्वितीय अधिकार में असंख्य वर्षों तक निम्न योनियों में भ्रमण आदि का वर्णन है, तो तृतीय अधिकार में नारकीय परिदृश्यों का वर्णन। प्रस्तुत काव्य का महत्त्व इसके उत्तरार्द्ध के कारण है। इस दृष्टि से पंचम अधिकार में प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव का वर्णन है तथा अन्य अधिकारों में क्रमशः तीर्थकर-महिमा, गर्भावतरण महोत्सव, जन्मकल्याणक महोत्सव, केवल ज्ञान की सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211492
Book TitleMahavir aur Unka Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSureshchandra Gupt
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size626 KB
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