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________________ विश्व में दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित हैं- भौतिक आवआध्यात्मिक। मार्ग भी दो हैं - प्रेयस् और श्रेयस् । पुद्गल, शरीर, इन्द्रिय-विषयभोग पोषण का मार्ग प्रेयस् है, जबकि आत्मकल्याण के लिए त्याग - वैराग्य का मार्ग श्रेयस् हैं। एक भोगप्रधान है तो दूसरा त्याग-प्रधान है। एक आत्मा का पतन करने वाला है तो दूसरा उत्थान। इन दोनों को भलीभाँति समझकर आत्मार्थी संयम का मार्ग अपनाते हैं, जबकि भोगलोलुप विषयकषाय के दलदल में फँसकर संसार - समुद्र में गोते खाते रहते हैं। ब्रह्मचर्य शब्द 'ब्रह्म+चर्' से बना है। ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और चर् का अर्थ है चलना, रमण करना । अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ है आत्मा में रमण करना । श्रेयोमार्गी ही आत्मा में रमण कर सकता है कहा भी गया है शरीर है तो प्राण है। शील है तो शान है। 'नवल' आत्मा से बात करोविनय है तो वरदान है ॥ ब्रह्मचर्य यदि ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो बादाम, काजू खाना छोड़ना पड़ेगा, उसके स्थान पर त्याग के मेवे खाने पड़ेंगे मेवे खाओ त्याग के, जो चाहो आराम। উ इन भोगों में क्या रखा, नकली आम बादाम ।। जैन-धर्म शुद्ध सनातन होने से संयममार्ग की विशेष प्रेरणा देता है। किन्तु वह मात्र निवृत्तिप्रधान ही नहीं, अपितु उसमें प्रवृत्ति को भी स्थान है, किन्तु किससे निवृत्त हों और किसमें प्रवृत्ति करें, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है एगे औनियत्तिणं एगे ओ पवत्तेणं । असंजमे विवत्ति च, संजमे य पवत्तेणं ॥ Jain Education International अर्थात् असंयम से निवृत्ति करें और संयम में प्रवृत्ति करें। संसार में सभी धर्मों का सार संयम है, सत्य है और सभी उत्तम धर्मों का समावेश इसमें हो जाता है। देवता भी उसे नमस्कार करते हैं, जो संयम धर्म का पालन करता है। स्वयं भगवान् कहा है कि अहिंसा, तप और संयम रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है और देवता भी उसे नमस्कार करते हैं जो इस धर्म का पालन करते हैं। समस्त ज्ञान का भी सार यही है। कहा गया हैएवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं । अहिंसा संयम चेव, एयावंत वियाणिया ।। परम पूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी महाराज के शिष्य मुनिराज नरेन्द्र विजयजी 'नवल' ज्ञानी के ज्ञान सीखने का सार यही है कि वह किसी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है। यही विज्ञान है। ब्रह्मचर्य और संयम पर्यायवाची शब्द हैं। जो ब्रह्मचर्य का पालन करेगा वही संयम से रह सकेगा। जो संयम पालन करेगा वही आत्मा रमण कर सकेगा। संयम का अर्थ है, संयम सं = अच्छी तरह से और यम अर्थात् मन, वचन, काया के योगों पर नियंत्रण । अर्थात् समतापूर्वक यम में प्रवृत्त होना । जाग्रत साधक को ही मुनि कहा जाता है। पाप-प्रवेश का कारण ही अजागृति है, असावधानी है । वृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है 'जागरण णरा णिच्चं ।' जो सोवत है वह खोवत है | जो जागत है वह पावत है ।। जागृत साधक को ही मुनि कहते हैं। आचारांग में भी उल्लेख है"सुत्ता अमुणि, मुणिणो सया जागरंति। " जो सोते हैं वे अमुनि हैं, मुनि जो सदैव जाग्रत ही रहते हैं। असंयमी पापबुद्धि प्राणी का सोते रहना ही अच्छा है। अपने तन, मन इंद्रियों और कामनाओं पर विजय प्राप्त करना ही संयम কমले कीমট[११]ম For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211475
Book TitleBramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendravijay
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size798 KB
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