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________________ 2060100000000000000000000 अर्थ-सच बात कहता है, यह कोई मेरे मन की बात नहीं है। आज इन सतीजी के संघाड़े में सभी सतियाँ अत्यन्त योग्य और महाविदुषी हैं । विद्वत्ता के बोझ से झुकी हुई वे जो सतीजी फरमाते हैं, उसका वे उसी समय पालन करती हैं, साथ ही ये सतियाँ हृदय में सोचती हैं कि उनके कहने से पहले ही कार्य हो जाना चाहिए । नाहं वक्तु यथार्थ परमपि सततं रूपमेतत्स्वतोऽस्याः, मिथ्याचारादिमग्नः कथयति रचितं लौकिकं कार्यमेकम् । तस्मान्मन्ये ममेदं कथनमपि तदा केवलं सारहीनम्, जानीयुः केपि सन्तः परमपदरता ध्यानमग्ना महान्तः ॥११॥ अर्थ-वास्तव में, मैं सतीजी के असली रूप को तो बता नहीं सकता (क्योंकि मुझ में इतनी योग्यता नहीं है) किन्तु झूठ आदि में फंसा मैं दुनियावी कामों को ही गिना सकता हूँ। इसलिए मैं है मानता हूँ कि यह सब मेरा कथन सारहीन ही है। किन्तु मोक्षार्थी तत्वज्ञ मुनिजन मेरे इस ऊटपटांग वर्णन से कुछ तो अर्थ निकाल ही लेंगे। यद्यप्यस्या गुणानामतिशयमपरं वक्तुमिच्छाम्यपारम्, ध्यानं तावन्मदीयं व्यथितजनकथावन्मामकीनं विपन्नम् । भ्राम्यत्येवं कथायाः झटिति मम मनश्चञ्चलत्वाद् गुणेभ्यः, हेतुर्नान्योऽस्ति कश्चित् सकलगुणमहिम्नः शीलशुक्लोम्बरायाः ॥१२॥ अर्थ-यद्यपि मैं सतीजी के गुणों के अपार महत्व को कहना चाहता हूँ, तब तक मेरा कहनाCB करना रोगी की कहानी के समान गड़बड़ा जाती है। कहना चाहता हूँ कुछ, कह जाता हूँ कुछ, क्योंकि मेरा मन मुझको धोखा देता है। अतः गुणों की बात कह नहीं पाता । कारण इसका यही हो सकता है कि शीलशुक्लाम्बरधारी सतीजी महाराज स्वयं ही ऐसी हैं कि मैं कुछ कह ही नहीं पाता। सत्याश्चास्या गुणानां परिचितिरपरा बाधिका वर्तते मे, स्वल्पायुष्ये सतीयं परमगुणवती दीक्षितासीज्जनन्या । सार्ध देव्या महत्या विमलगणधरे पुष्कराचार्य संघे, दिव्योत्कर्षप्रतिष्ठे परमगतियशः शोभिते सन्मुनीन्द्र ।।१३।। अर्थ-दर असल छोटी सी उम्र में ही इन सतीजी ने अपनी पूज्य माताजी के साथ ही परम( यशस्वी अध्यात्मयोगी मोक्षमार्गो परम प्रसिद्ध सन्मुनीन्द्र गुरुवर श्री पुष्करमुनिजी के संघ में दीक्षा ! of ग्रहण करली थी, तभी से परिचित होने के कारण में इन सतीजी को जानता भर हूँ, किन्तु इन्होंने इतनी उन्नति कर ली है कि मैं अब इन सतीजी के महत्व को नहीं पहचानता । क्योंकि तपस्या से व्यक्ति कुछ CR का कुछ हो जाता है। तस्यैवेयं सतीनां शुभमतियशसां सुप्रसिद्धा गणश्रीः, नेयं शिष्यैव लोके परमगणधरा शिक्षितानां सतीनाम् । दिव्याभानां सुरत्नं सुविमलयशसां राजते तीर्थरूपा, दृष्ट्वा सत्योऽपि चान्याः स्वयमतिविमलाः स्पर्द्धमाना यतन्ते ॥१४॥ अर्थ-तपःसिद्ध अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि गुरुदेव, उनकी पवित्र बुद्धि और यशवाली सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन | ५३२ 20. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6. Jain Edurlon International FOSPrNate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211464
Book TitleBalbramhacharinya Shrimatya Kusumvatya Satya Yash Saurabham
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size863 KB
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