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बच्चों में चरित्र-निर्माण : दिशा और दायित्व
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स्कूलों में कमरे नहीं हैं, टाट पट्टियाँ नहीं हैं। बच्चों के स्कूल घुड़शाला से अधिक नहीं बन पाये । औषधालय बूचड़खाने से अधिक नहीं बन पाये । समाज के कई लोगों के बच्चे अवैध रूप से सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं। बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, बीमारियों से पीड़ित हैं, अभावों की जिन्दगी जीते हैं और फिर भी समाज के ठेकेदार और देश के कर्णधार इन्ही बच्चों को नीति और आदर्श का पाठ पढ़ाने के लिए धुंआधार भाषण झाड़ जाते हैं।
सरकार ने संविधान के अनुच्छेद २३ के प्रावधान का पालन करते हुए १४ वर्ष से कम के शिशुओं को कारखानों और खतरनाक कामों पर नियुक्त करने पर रोक लगा दी है पर आज भी कई बच्चे ऐसे काम करते हैं। कई छोटे बच्चे ठेला चलाते हैं, हम्माली करते हैं, साइकिल रिक्शा चलाते हैं। कई कानून बन गये पर होटलों में सुबह से रात्रि तक काम करने वाले छोटे-छोटे बच्चों को राहत नहीं दिला सके। बच्चों के नियोजन पर रोक का कानून १९३६ से ही बन गया, उसमें कई उद्योग, व्यापार, व्यवसाय सम्मिलित कर लिये गये, अभी १९७६ में रेलवे ठेकेदारों को भी इसमें लिया गया पर क्या बच्चों का नियोजन रुका ? नहीं। बच्चों का व्यापार घोर दण्डनीय अपराध है फिर भी होता है । अपहरण होते हैं। छोटे-छोटे बच्चे पाकिटमार, चोर-गिरोहों में चले जाते हैं। छोटी-छोटी बच्चियाँ कोठे की शरण में पहुँच जाती हैं । चोपड़ा बच्चे-हत्याकाण्ड सरीखे हत्याकाण्ड होते हैं, गांव-शहर सब ओर बलात्कार भी होते हैं । समाज द्वारा बनाई हुई या सरकार की इस कुव्यवस्था, कानूनी दुर्व्यवस्था में हम बच्चों के चरित्र की बात किस मुंह से करें ?
भिक्षावृत्ति पर रोक है । मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में वर्षों पूर्व से कड़े कानून बने हुए हैं पर स्टेशनों पर, डिब्बों में, सड़कों-फुटपाथों पर, बड़े-बड़े तीर्थ-स्थानों पर छोटे बच्चे भीख माँगते, अकुलाते दिखाई देते हैं। धार्मिक स्थानों पर लाखों-करोड़ों रुपये मन्दिरों, मस्जिदों, यज्ञ-हवन, भोजन पर खर्च हो जाते हैं पर वहीं छोटे-छोटे बच्चे अन्न के लिए तरसते मिल जायेगे। हम इस समाज से बच्चों के चरित्र में किस भूमिका की बात करें ?
भीड़ भरी बसों, ट्रेनों में बच्चे भेड़ बकरी सरीखे जाते हैं। बच्चे वाली महिलाएँ भी खड़ी-खड़ी पिसती चली जाती हैं। बच्चों के बारे में किसे चिन्ता है ?
सरकार ने बाल-विवाहों की बुराई देखकर पचास वर्ष पूर्व कानून बनाया पर क्या उससे बाल-विवाह रुक पाए ? नहीं। टूटे-बिखरे परिवारों के बच्चों के लिए समाज और सरकार ने क्या व्यवस्था की ? अब तो इन कानूनों को सरकार में बैठे मंत्री भी तोड़ने लगे हैं, तो दूसरों से क्या अपेक्षा रखें?
इतना सब होते हुए भी इस दुश्चक्र से निकालकर बच्चों के चरित्र-निर्माण पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा। तभी चारित्रिक अध:पतन से उत्पन्न सामाजिक विकृति से निजात पा सकते हैं। इसलिए अभिभावक, शिक्षक और समाज और स्वयं को बदलना होगा और तब कुछ परिवर्तन हो सकेगा। हम बच्चों के चरित्र-निर्माण में क्या भूमिका निभाएँ, पहले उक्त वणित परिस्थितियों को बदलें और कुछ ठोस कार्य करें।
इस पृष्ठभूमि में हम सोचें कि बच्चे के चरित्र-निर्माण में अभिभावक की भूमिका कितनी अहम है ? इनमें से माँ का प्नभाव बच्चे के चरित्र पर सर्वाधिक पड़ता है। गर्भावस्था से ही शिशु का मन प्रभावित होता है। आज की महिला चाहे माने या न माने पर मनोवैज्ञानिक अब 'अभिमन्यु का गर्भ में ज्ञान' सिद्धान्त मानने लगे हैं। साम्यवादी देशों में 'ब्रेन वाशिंग' गर्भवती माँ को पाठ पढ़ाकर ही किया जा रहा है। हमारे धर्मशास्त्रों में इसके किस्से पाये जाते हैं कि गर्भस्थ शिशु अपनी माँ एवं सबको प्रभावित करता है और माँ भी बच्चे का विशेष ध्यान रखती है। उस काल में उसका आचार-विचार शुद्ध और उच्च हो। सद्साहित्य का वाचन-श्रवण करे। मां आर्थिक-मानसिक-व्यथाओं, विग्रहों, कुण्ठाओं से दूर रहे। काम-क्रोध से परे रहे । सरल और मौख्य जीवन यापन करे।
इस हेतु समाज-सेवी, धार्मिक संस्थाओं को विशिष्ट साहित्य उपलब्ध कराना चाहिये। प्राचीन साहित्य एवं नीति कथाएं उपलब्ध हैं। इनका विशेष प्रचार-प्रसार होना चाहिये। समाजसेवी संस्थाओं एवं ग्रन्थालयों से
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