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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ JILL सचा दा0। 4. विवेक विवेक का तात्पर्य है त्याग। आधाकर्म आदि आहार आ जाने पर उसे छोड़ देना विवेक प्रायश्चित्त है। 5. व्युत्सर्ग नदी, अटवी आदि के पार करने में यदि किसी तरह का दोष आ जाता है तो उसे कायोत्सर्गपूर्वक विशुद्ध कर लिया जाता है। अनगारधर्मामृत तथा भावपाहुड में ऐसे अपराधों की एक लम्बी दी है जिसके लिए व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त करना आवश्यक माना गया है। इसे कायोत्सर्ग भी कहा जाता है। इसमें श्वास का नियमन कर समता का भावन किया जाता है। इससे अनासक्ति और निर्भयता का विकास होता है जो आत्म-साधना के लिए आवश्यक है / 30 6-10. तप, छेद आदि अन्य भेद अनशन, अवमौदर्य आदि तप हैं। यह तप प्रायश्चित्त सशक्त और सबल अपराधी को दिया जाता है। बार-बार अपराध करने पर चिर-प्रवजित साधु की अमुक दिन, पक्ष और माह आदि की दीक्षा का छेद करना छेद है / इससे साधु व्यवहारतः अन्य साधुओं से छोटा हो जाता है / मूल प्रायश्चित्त उसे दिया जाता है जो पार्श्वस्थ, अवसन्न कुशील और स्वछन्द हो जाता है अथवा उद्गम आदि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका आदि का ग्रहण करता है / जिन गुरुतर दोषों से महाव्रतों पर आघात होता है उनके होने पर दीक्षा पर्याय का पूर्णतया छेदन कर दिया जाता है और पुनः दीक्षा दे दी जाती है। इसी को उमास्वाति ने श्रद्धान या उपस्थापना कहा है। अनवस्थाप्य परिहार में विशिष्ट गुरुतर अपराध हो जाने पर साधक को श्रमण संघ से निष्कासित कर गृहस्थ वेश धारण करा दिया जाता है बाद में विशिष्ट तप आदि करने के उपरांत पूनः दीक्षा दी जाती है। पारांचिक परिहार में छह माह से बारह वर्ष तक श्रमण संघ से निष्कासित किया जाता है। यह प्रायश्चित्त उस मुनि को दिया जाता है जो तीर्थंकर, आचार्य, संघ आदि की झूठी निन्दा करता है, विरुद्ध आचरण करता है, किसी स्त्री का शील भंग करता है, वध की योजना बनाता है अथवा इसी तरह के अन्य गुरुतर अपराधों में लिप्त रहता है। इन प्रायश्चित्तों के माध्यम से साधक अपना अन्तर्मन पवित्र करता है और वह पुनः सही मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है / यहाँ यह आवश्यक है कि व्रतों में अतिचार आदि दोष आ जाने पर तुरन्त उसका प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए अन्यथा उसका विस्मरण हो जाता है और फिर वह संस्कार-सा बनकर रह जाता है। जो भी हो, प्रायश्चित्त अध्यात्म यात्रा की एक सीढी मानी जा सकती है जिस पर चढ़कर साधक अपनी साधना में निखार लाता है और अपराधों से बचकर अपनी तपस्या को विशुद्ध कर लेता है। 4 . 20. तत्त्वार्थवात्तिक, 9:26 21. धवला, 13:54:26 प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि : डॉ० पुष्पलता जैन | 137 www.iaid
SR No.211447
Book TitlePrayaschitta swarup aur Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle, Ritual, & Vidhi
File Size916 KB
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