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________________ प्राचीन ब्रजमंडलमें जैनधर्मका विकास श्री प्रभुदयाल मीतल, मथुरा जैन तीर्थंकरोंका सम्बन्ध-जैन धर्मके २४ तीर्थंकरोंमेंसे कईका घनिष्ठ सम्बन्ध शरसेन जनपद अर्थात् प्राचीन व्रजमंडलसे रहा है। जिनसेन कृत 'महापुराण' में जैन धर्म की एक प्राचीन अनुश्रुतिका उल्लेख हुआ है। उसके अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथके आदेशसे इन्द्रने इस भूतलपर जिन ५२ देशोंका निर्माण किया था, उनमें एक शूरसेन भी था, जिसकी राजधानी मथुरा थी। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथका मथुरा से विशेष सम्बन्ध रहा था, जिसके उपलक्षमें कुवेरा देवीने यहाँपर एक स्तूपका निर्माण किया था। समें सुपार्श्वनाथजीका बिम्ब प्रतिष्ठित था। वह स्तूप जैन धर्मके इतिहासमें बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथजीको स्मृति में भी एक स्तुपके बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथजी जैन मान्यताके अनुसार वासुदेव कृष्णके भाई थे, जो शूरसेन जनपदके प्राचीन शौरिपुर राज्य ( वर्तमान बटेश्वर, जिला आगरा ) के यादव राजा समुद्रविजयके पुत्र थे। उनके कारण शूरसेन प्रदेश और कृष्णका जन्मस्थान मथुरा नगर जैनधर्मके तीर्थस्थान माने जाने लगे थे। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथजी और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर एवं जैनधर्म के प्रतिष्ठाता महावीरजीका मथुरामें विहार हआ था। जिस कालमें भगवान् महावीरजी मथुरा पधारे थे, उस समय यहाँके राजा उदितोदय अथवा भीदाम, राजकुमार कंवल और शंवल, नगर सेठ जिनदत्तके पुत्र अर्हदास तथा अन्य राजकीय पुरुष एवं प्रतिष्ठित नागरिक जैनधर्ममें दीक्षित हए थे । उनके कारण साधारण जनतामें भी जैनधर्मका प्रचार होने लगा था। जम्बूस्वामीका साधना-स्थल-भगवान् महावीरके प्रशिष्य सुधर्म स्वामीसे प्रव्रज्या लेकर जम्बू स्वामीने मथुराके चौरासी नामक स्थलपर तपस्या की थी। २. वर्ष तक मुनिवृत्ति धारण कर तपस्या करनेसे वे कैवल्यज्ञानी हए थे। ४४ वर्ष तक कैवल्यज्ञानी रहने के उपरान्त उन्हें सिद्ध पद प्राप्त हुआ था। इस प्रकार ८० वर्षकी आयुमें उन्होंने मोक्ष लाभ किया। जम्बू स्वामी जैनधर्मके अन्तिम केवली माने गये हैं। उनकी तपस्या और मोक्ष-प्राप्तिका केन्द्र होनेसे मथुराका चौरासी नामक स्थल जैनधर्मका 'सिद्ध क्षेत्र' माना जाता है। जम्बू स्वामी के प्रभावसे सद्गृहस्थोंके अतिरिक्त दस्युओंके जीवनमें भी धार्मिकताका उदय हुआ था। उस समयके कई भयंकर चोर अपने बहुसंख्यक साथियोंके साथ दुष्प्रवृत्तियोंको छोड़कर तप और ध्यानमें लीन हुए थे। मथुराके तपोवनमें उक्त दस्युओंको भी साधु-वृत्ति द्वारा परमगति प्राप्त हुई थी। कालान्तरमें जब चौरासीमें जम्बू स्वामीके चरण-चिह्न सहित मन्दिर बना, तब उनके समीप उन तपस्वी दस्युओंकी स्मृतिमें भी अनेक स्तूप बनवाये गये थे । देव निर्मित स्तूप-सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथजी की स्मृतिमें कुवेरा देवीने मथुरामें जिस स्तूपका निर्माण किया था, वह अत्यन्त प्राचीन कालसे ही जैनधर्मके इतिहास में प्रसिद्ध रहा है। 'मथुरापुरी कल्प' से ज्ञात होता है कि तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथजीके समय में उसे ईंटोंसे पुननिमित किया गया था। वह जैनधर्मका सबसे प्राचीन स्तूप था, जो कमसे कम तीन सहत्र पूर्व बनाया गया था। इतिहास और पुरातत्त्व : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211442
Book TitlePrachin Vrajmandal me Jain Dharm ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudayal Mittal
PublisherZ_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf
Publication Year1977
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size861 KB
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