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________________ प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मालवा की देन २२१ भुजबन्ध हैं। ये मूर्तियाँ स्थूल अथवा घटोदर हैं। यक्षमूर्तियों की इस परम्परा का स्रोत अज्ञात है परन्तु जिस रूप तथा मात्रा में ये उपलब्ध हैं इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनकी समृद्ध परम्परा रही जो साहित्य में ही उपलब्ध है, मूर्त रूप में नहीं। सम्भवतः इससे पूर्व ये मूर्तियां मिट्टी अथवा काठ की बनती रही होंगी जो कालान्तर में नष्ट हो गयीं। इस युग के सम्पूर्ण साहित्य में यक्ष के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । भासकृत प्रतिज्ञा-यौगन्धरायण के अनुसार वासवदत्ता उज्जयिनी में यक्षिणी की पूजा के लिए जाती है। हां, यक्ष-मूर्तियों की यह ऋद्ध-परम्परा शुंगकाल में अधिक व्यापक हो गयी। शुग युग में भरहुत तथा साँची के स्तूपों की वेदिकाएं बनीं, तोरण द्वार बने और उन पर कलात्मक सौन्दर्य बिखर गया। बौद्धधर्म के प्रति जो आस्था जन-हृदय में विद्यमान थी वह पाषाणों पर उभरी परन्तु जनभावना में यक्ष-नाग इत्यादि जो लोकदेवता आसीन थे वे भी उसके साथ ही आकार ग्रहण करने लगे। फलतः यह मिश्रित कला भरहुत तथा साँची दो केन्द्रों में एक मिश्रित कला भरहत तथा सांची दो केन्द्रों में एक साथ पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हई। इस युग में अलंकरण की अनेक परतें प्रकट हुईं। लक्ष्मी , पूर्णघट, उत्तरकुरु, धर्मचक्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष, मकर, कच्छप, यक्ष-यक्षी, वृक्ष, स्तूप, अशोक स्तम्भों पर प्राप्त होने वाले वृषभ, सिंह, अश्व, हस्ती आदि पशुओं की पूजा, विविध देवी-देवता, देवप्रासाद, पुष्पमाला, कल्पलता, सरोवर इत्यादि अनेक अंकन धार्मिक मान्यता के साथ ही शोभाकारक भी थे। शुंग-युग में विदिशा तथा साँची कला-वैभव से खचित हो गये। मथुरा से प्रतिष्ठान जाने वाले महापथ पर यह व्यापारिक केन्द्र था। विदिशा में विष्णु-मंदिर, गरुड़ध्वज तथा मकरध्वज एवं निधियों के द्योतक शंख तथा पद्म से शोभित कल्पवृक्ष का भी सुन्दर अंकन हुआ है। वस्तुतः यह कल्पवृक्ष, वटवृक्ष के रूप में अंकित हुआ है जिसकी झलती जड़ों के मध्य निधि से पूर्ण एक पात्र, दो थेले, तथा शंख एवं पद्म दिखाए गए हैं । ५ फीट ८ इंच ऊँचा यह कुबेर के ध्वजस्तम्भ का शीर्षभाग अब कलकत्ता संग्रहालय में है । साहित्य के सन्दर्भ में इस वटवृक्ष का विशेष महत्त्व है। कालिदासकृत मेघदूत में विदिशा के 'ग्राम चैत्यों' का उल्लेख है। चैत्य पर यक्ष का निवास होता था। यह चैत्य या तो भवन के रूप में होता था अथवा वृक्ष । यह वृक्ष वटवृक्ष होता था। 'वटयक्ष' की चर्चा साहित्य में होती रहती है। स्पष्ट ही विदिशा का ‘ग्रामचैत्य' यक्ष अथवा उसके अधिपति कुबेर के ही वासस्थान होने से मेघदूत में व्यक्त हुए हैं। प्रश्न उठता है कि विदिशा में ही उसका उल्लेख क्यों किया गया? इसका उत्तर हमें कला के इतिहास से प्राप्त होता है। विदिशा ई० पू० तीसरी सदी से ही, अशोक के समय से ही यक्ष एवं कुबेर की मूर्ति स्थापना का केन्द्र रहा है। वहाँ मौर्यशुंग युगीन खुले आकाश के तले खड़ी महाकाय मूर्तियां अनेक उपलब्ध होती हैं । प्रमुख २ आनन्द के० कुमारस्वामी, यक्ष, भाग २, पृ० ७२ तथा प्लेट १ एवं ४६ (चित्र १-२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211435
Book TitlePrachin Bhartiya Murtikala ko Malva ki Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagvatilal Rajpurohit
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Art
File Size964 KB
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