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________________ २२० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मध्यकालीन ऐसे उदाहरण उपलब्ध नहीं हुए जो सिन्धु सभ्यता से मौर्य युग तक की कला- परम्परा व्यक्त कर सकें । मौर्य युग कला की समृद्ध परम्परा के साथ भारत भूमि पर अवतीर्ण होता 1 देश के विभिन्न भागों से मौर्ययुगीन अद्वितीय कला के अवशेष उपलब्ध होते हैं । यह कला दो रूपों में प्रकट हुई - राजकीय एवं लोक-कला । विदिशा के निकट साँची से सम्राट् अशोक के द्वारा उच्छ्रित एक पाषाणस्तम्भ प्राप्त हुआ है । सारनाथ के समान यह भी सिंहशीर्षक है जहाँ चार सिंह पीठ सटाए बैठे हैं । शीषं गोल चौकी की दीवाल पर चुगते हंसों की पंक्ति है जो रामपुरवा शीर्षक के सदृश है । बाराबर पर्वत के पाषाण से निर्मित इस स्तम्भ मूर्ति की ओप अनोखी है जो समकाल में तो व्यापक प्राप्य है परन्तु उससे पहले तथा बाद में दुर्लभ रही । अशोकयुगीन एक खण्डित गजमूर्ति उज्जयिनी के निकट सोढंग से उपलब्ध हुई जो अब विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व संग्रहालय में सुरक्षित है । राजकीय शिल्प से हटकर मौर्ययुगीन लोककला की परम्परा का प्रमाण इस युग की महाकाय यक्ष मूर्तियों से प्राप्त होता है जो मथुरा से उड़ीसा, वाराणसी से विदिशा तथा पाटलिपुत्र से शूर्पारक तक के सुविस्तृत क्षेत्र में पाई जाती हैं । इनका अपना व्यक्तित्व है जो अलग से पहचाना जा सकता है । अतिमानवी महाकाय ये मूर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थीं । ये यक्ष प्रतिमाएँ इस देश में व्यापक यक्ष-पूजा का साक्षात् प्रमाण हैं । वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों धर्मों में इनके प्रति समान आस्था थी और धर्म से परे तीनों धर्मों से सम्बद्ध कला में इनका पर्याप्त अंकन हुआ है । जिस प्रकार मथुरा जिले के परखम ग्राम से प्राप्त यक्ष- प्रतिमा सुप्रथित है उसी प्रकार बेसनगर से प्राप्त यक्ष की १२ फीट ऊँची प्रतिमा अपनी महाकायता एवं सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है । जिस प्रकार पटना के दीदारगंज की यक्षी की प्रतिमा अप्रतिम है उसी प्रकार बेसनगर से प्राप्त यक्षी भी अपनी उपलब्धि में अकेली है । ये यक्षमूर्तियाँ महाकाय, समुन्नत तथा बलिष्ठता एवं दृढ़ता की द्योतक हैं । चतर्मुख- दर्शन होने पर भी सम्मुख - दर्शन से युक्त इन प्रतिमाओं के वेष में सिर पर पगड़ी, उत्तरीय जिसे वक्ष पर बाँधा गया, धोती जो कटि में मेखला से बँधी है, कानों भारी कुंडल, गले में भारी कंठा, छाती पर चपटा तिकोना हार तथा बाहुओं पर १ सोढंग – उज्जयिनी के समीपवर्ती इस ग्राम का नाम प्राचीन ताम्रपत्रों में बार-बार आए 'सोद्र ंग' शब्द का विकार प्रतीत होता है । यह भी सम्भव है कि बोठंग नामक किसी विदेशी के नाम पर यह गाँव बसाया गया हो और उसका अपभ्रंश सोढंग हो गया हो । चीनी तुर्किस्तान से प्राप्त लेखों में यह नाम अनेक बार प्रयुक्त हुआ है । प्राचीन युग में उज्जयिनी में अनेक विदेशी लोग रहते थे । हृष्टव्य डी० सी० सरकार द्वारा संपादित 'सलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स्' १९६५, पृ० २४४,४६, ४८ इत्यादि । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.211435
Book TitlePrachin Bhartiya Murtikala ko Malva ki Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagvatilal Rajpurohit
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Art
File Size964 KB
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