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प्राचीन भारत में देश की अंकता
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दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा और उत्तर दिशा को भी जीतकर उन उन समुद्रों का अवगाहन करता है।"
वस्तुतः इस युग के साहित्य में भारत के भीतरी और बाहरी भूप्रदेश की भौगोलिक एकता और पारस्परिक घनिष्ठ सन्बन्ध बार बार उभर आते हैं। इन्दुमती के स्वयंवर में देश के सब राजाओं को एकत्र कर कवि ने मातृभूमि का एक समुदित चित्र उपस्थित किया है। पुष्पपुर के मगधेश्वर, अंगदेश (मुंगेर, भागलपुर) के राजा, महाकाल और शिप्रा के स्वामी अवन्तिनाथ, माहिष्मती के अनूपराज, मथुरा, वृन्दावन और गोवर्धन के शूरसेनाधिपति, महेन्द्र पर्वत और महोदधि के स्वामी कलिंगनाथ, उरगपुर और मलयस्थली के पांड्यराज, एवं उत्तर कोसल के अधीश्वर, इन सब को इन्दुमती के स्वयंवर में एकत्र लाकर कवि मगधेश्वर के लिए कहता है: कामं नृपाः सन्तु सहस्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम् (रघुवंश ६।२२); और सहस्रों राजा भी चाहे हों, यह भूमि मगध के सम्राटों से ही राजन्वती कहलाती है। देश की राज्यशक्तियों में उस समय मगध का जो सर्वोपरि स्थान था उसका यथार्थ उल्लेख कवि के शब्दों में है। विदर्भ जनपद की राजकुमारी के स्वयंवर का क्षितिज उत्तरकोसल से दक्षिण के पांड्य देश तक विस्तृत था। इससे स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवहार और राजनैतिक सम्बन्धों की दृष्टि से अपनी आंतरिक सीमाओं के भीतर भारत की भूमि दृढ़ इकाई बन चुकी थी।
दूसरी ओर जब हम विदेशों के साथ भारत के सम्बन्धित हो जाने की बात सोचते हैं तो भारतीय साहित्य में उसकी भी साक्षी उपलब्ध होती है। इसका अच्छा उदाहरण दिग्वर्णन के रूप में पाया जाता है। गुप्तकाल में जब ईरान से जावा तक भारत का यातायात फैल गया था उस समय के सांयात्रिक नाविकों अथवा स्थलमार्ग से यात्रा करने वाले सिद्धयात्रिक सार्थवाहों के उपयोग के लिये ये दिग्वर्णन संकलित किए गए होंगे। इनमें चारों दिशाओं में भारत के भीतर और बाहर के प्रसिद्ध स्थानों और देशों का एक ढर्रा सा पाया जाता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर इस प्रदक्षिणाक्रम से ये दिग्वर्णन मिलते हैं। इस दिग्वर्णन के कई रूप साहित्य में पाए गए हैं। एक रूप बुधस्वामिन् के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह नामक ग्रंथ में है। रामायण के किष्किंधा कांड में सुग्रीव द्वारा चारों दिशाओं में सीता की खोज के लिये बन्दरों के भेजे जाने के प्रसंग में भी दिग्वर्णन आया है। वहां पूर्व दिशा का वर्णन करते हुए जावा के सप्तराज्यों का उल्लेख है। ये राज्य तीसरी-चौथी शती से पहले जावा में न थे। महाभारत के वनपर्व में गालवचरित के अन्तर्गत गरुड़ ने गालव से दिग्वर्णन किया है। उसमें पश्चिम दिशा में हरिमेधस् देव का उल्लेख है जिसकी ध्वजवती नामक कन्या पर सूर्य मोहित हो गए थे। तब वह सूर्य के आदेश से आकाश में ही स्थित हुई। ये हरिमेधस् देव ईरान की पहलवी भाषा में हरमुज कहलाते थे। सभापर्व के दिग्विजय पर्व के अन्तर्गत भी एक दिग्वर्णन है जिसमें भारतवर्ष की भौगोलिक इकाई को बढ़ाकर विदेशों के साथ मिलाया गया है। वहां उत्तर दिशा की ओर दिग्विजय करते हुए अर्जुन की यात्रा पामीर (कम्बोज) और मध्य एशिया के उस पार के प्रदेश (उत्तरकुरु) तक जा पहुंचती है जहां ऋषिक नाम से विख्यात यू-चि
५. एवं खलु राजा क्षत्रियो मूर्धाभिषिक्तो पूर्वी दिशं विजयति। पूर्व दिशः विजिताः पूर्व समुद्रमवगाय पूर्व समुद्रमवतरित दक्षिण दिशं पश्चिमामुत्तरो दिशं च विजित्य उत्तरं समुद्रमवगाहते (ललितविस्तर पृ. १५)
इसी भावना का समर्थन बाण की इस कल्पना से होता है-हर्ष का कड़कता हुआ दाक्षिण भुजदंड प्रार्थना कर रहा था कि मुझे अठारह द्वीपों की विजय करने के अधिकार पर नियुक्त कीजिए । (नियुज्य तत्कालस्मरणा स्फुरणेन कथितात्मानमिव चाष्टादशद्वीपजेतव्याधिकारे दक्षिणं भुजस्तम्भ, हर्षचरित, उच्छ्वास ७, पृ. २०३)। बाण ने इस युग में जनता के विदेशों में यातायात को देखते हु "सर्वद्वीपान्तरसंचारी पादलेप" इस साहित्यिक अभिप्राय का उल्लेख किया है अर्थात् पैरों में कुछ ऐसा लेप लगाया जिससे सब द्वीपान्तरों में घूम आने की सामर्थ्य प्राप्त हो, हर्षचरित, उच्छ्वास ६, पृ. १९४)। वहीं समुद्रयात्रा से लक्ष्मी संप्राप्ति (अब्भ्रमणेन श्रीसमाकर्षणं, पृ. १८६) का भी उल्लेख है।
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