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श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
माला पहनने वाली बन गई।' गुप्तों के स्वर्णयुग में भारत का वह दिव्य भास्वर तेज मध्य एशिया से हिन्देशिया तक (जो उस समय भारतीय भूगोल में द्वीपान्तर के नाम से प्रसिद्ध थी ' ) और चीन से ईरान तक सर्वत्र छा गया था । सत्यमेव उस स्वर्णयुग में इस देश की वह सबसे महती धर्म विजय थी। बाहर इस सिद्धि के प्राप्त कराने में देश के भीतर का गुप्तों का एकतंत्र शासन और सुसमृद्ध राज्य भी कुछ कम उत्तरदायी न रहा होगा। कालिदास ने एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वम् के आदर्श में (घु. २/४७ ) अपने युग में भावों को ही व्यक्त किया है। भौगोलिक दृष्टि से यह प्रभुत्व अपने देश के भीतर ही सीमित था किन्तु सांस्कृतिक आदर्श भारत के विश्वराज्य को चरितार्थ करता था। उस महाकवि ने अपने युग की इस सचाई की ओर अन्य प्रकार से भी संकेत किया है। पुराणों ने जहां एक और हिमालय को भारत के धनुषाकृति संस्थान की तनी हुई प्रत्यंचा कहा है वहां कालिदास ने उसे पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों के बीच में व्याप्त पृथिवी का मानदण्ड कहा है। यदि हिमालयरूपी मानदण्ड के दोनों सिरों पर उत्तर-दक्षिण की
र रेखाओं का विस्तार किया जाय तो उनसे जो भूखंड परिच्छिन्न होगा उसे ही गुप्तकाल में भारतीय संस्कृति का या उस युग के शब्दों में धर्मराज्य का भू-विस्तार समझना चाहिए। गुप्तकाल में हिमवान् सचमुच भारत की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई का माप दण्ड था। पूर्व में किरात देश और पश्चिम में अफगानिस्तान में हिमालय के भाग हिन्दूकुश बाल्हीक तक हिमवन्त का विस्तार था। उतना ही उस समय भारतवर्ष था । किन्तु स्थूल भौगोलिक विस्तार पर श्राग्रह इस देश की पद्धति नहीं रही। यहां तो यशविस्तार या संस्कृतिविस्तार जो पर्यायवाची हैं, महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। उसका संकेत करते हुए कालिदास ने लिखा कि वह यश पर्वतों को लांघकर और समुद्रों को पार करके उनके उस पार पहुंच गया, पाताल और स्वर्ग में भी वह भर गया, देश और काल में उस यश के विस्तार की कोई सीमा न रही। आज मध्य एशिया और हिन्दएशिया के पुरातत्त्व गत अवशेष कालिदास कथन की प्रत्यक्ष व्याख्या करते हैं।
इस सांस्कृतिक विस्तार की सच्ची प्रतीति उस युग की जनता के मन थी। इसका सबसे पक्का प्रमाण इस बात से मिलता है कि उस युग में भारतवर्ष का भौगोलिक अर्थ ही बदल गया । भारत के अन्दर बृहत्तर भारत का भी परिगणन होने लगा । गुप्तयुग के पुराण लेखकों ने भारत की निजी भूमि के लिये कुमारी द्वीप नाम प्रचलित किया और उसके साथ पूर्वी द्वीपसमूह या द्वीपांतरों को मिलाकर बृहत्तर भारत के अर्थ में "भारत" इस शब्द का प्रयोग शुरू किया। अपने युग के इस आदर्श का बौद्ध साहित्य में भी उल्लेख हुआ है। ललितविस्तर में एक कल्पना है कि कोई दिव्य चक्र-रत्न धर्म विजय करते हुए चारों दिशाओं में घूमता है। 'इस प्रकार वह मूर्धाभिषिक्त धर्मात्मा राजा पूर्व दिशा को जीतता है। पूर्व दिशा को जीत कर पूर्व समुद्र में प्रविष्ट होकर उसे भी पार कर जाता है। इसी प्रकार वह
१. अपि च तवाष्टादशद्वीपाष्टमंगलकमालिनी मेदिनी अस्त्येव विक्रमस्य विषयः, हर्षचरित में बाण की कल्पना, उच्छ्वास ६, पृ. १९५ ।
२. प्राचीन जावा की भाषा में इसे भूम्यन्तर और नुसान्तर कहा गया है। जावा की भाषा में नुसा = द्वीप | ३. अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या हव मानदण्डः ॥ ( कुमारसम्भव १।१ )
४. आरूढमद्रीनुदधीन्वितीर्यं भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् ।
ऊर्ध्वं गतं यस्य न चानुबन्धि यशः परिच्छेत्तुमियत्तयालम् ।। (रघुवंश ६ | ७७ ) बाप ने भी कालिदास के स्वर में स्वर मिलाते हुए दिलीप के विषय में लिखा-भ्रूलतादिष्टाष्टादश द्वीपे दिलीपे (हर्षचरित, उच्छ्वास ६, पृ. १७६ ) ।
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