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डा० हरीन्द्रभूषण जैन
एम० ए०, पी-एच० डी साहित्याचार्य
प्राचीन भारत की जैन शिक्षण-पद्धति
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भारत में प्राचीन काल से ही ज्ञान की अतिशय प्रतिष्ठा रही है. व्यक्तित्व के विकास की दिशा में ज्ञान को सदैव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है. मानव जीवन की सफलता, मनुष्य के ज्ञान की मात्रा पर ही अवलम्बित होती है. शतपथ ब्राह्मण में ज्ञान की प्रतिष्ठा को प्रमाणित करते हुए कहा गया है कि 'स्वाध्याय और प्रवचन से मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है, वह स्वतन्त्र बन जाता है, उसे नित्य धन प्राप्त होता है, वह सुख से सोता है, उसका इन्द्रियों पर संयम होता है. उसकी प्रज्ञा बढ़ जाती है और उसे यश मिलता है.'
जैनागमों में भी ज्ञान की महिमा स्वीकार की गई है. उत्तराध्ययन में निम्नलिखित संवाद से ज्ञान के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है. शिष्य ने पूछा: 'हे पूज्य ! ज्ञानसंपन्नता से जीव को क्या लाभ होता है ?' गुरु ने उत्तर दिया : 'हे भद्र ! ज्ञानसम्पन्न जीव समस्त पदार्थों का यथार्थभाव जान सकता है. यथार्थ भाव जानने वाले जीव को चतुर्गतिमय इस संसार रूपी अटवी में कभी दुःखी नहीं होना पड़ता. जैसे धागेवाली सूई खोती नहीं है. उसी प्रकार ज्ञानी जीव संसार में पथभ्रष्ट नहीं होता और ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा विनय के योग को प्राप्त होता है तथा स्वपरदर्शन को बराबर जानकर असत्यमार्ग में नहीं फँसता'.
ज्ञान की इस महत्त्वपूर्ण स्थिति के बाद यह आवश्यक था कि ज्ञान सर्वसाधारण को सुलभ हो. इसके लिये भारत में प्राचीन काल से ही शिक्षण पद्धति पर विशेष ध्यान दिया गया है. वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों संस्कृतियों में शिक्षण की अपनी विशेष परम्पराएँ रही हैं. आजकल के विद्वानों ने भी वैदिक और बौद्ध शिक्षण पद्धतियों के विषय में पर्याप्त लिखा है.
जैन शिक्षण-पद्धति के विषय में हमें जैन आगमों में यत्र-तत्र अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं. जैन-शिक्षण-पद्धति से संबंपित इन उल्लेखों को एकत्रित करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि निःसंदेह भारतवर्ष में प्राचीनकाल में एक अत्यन्त सुव्यवस्थित जैन शिक्षण-पद्धति थी.
जैन तथा बौद्ध शिक्षण-पद्धतियों में प्रायः साम्य है. इसका प्रधान कारण यह है कि दोनों धर्मों में ज्ञान का प्रसार करने का श्रेय उन मुनियों अथवा भिक्षुओं को है जो कि गृहस्थ आश्रम से दूर रहकर अपना समस्त जीवन ज्ञान के दान और आदान में ही व्यतीत किया करते थे, बौद्ध तथा जैनधर्म इन दोनों धर्मों के धार्मिक विचारों की निकटता भी दोनों शिक्षण-पद्धतियों की समानता का एक अन्य कारण हो सकती है.
अब हम तुलनात्मक रीति से प्राचीन भारत की जैनशिक्षण-पद्धति पर विचार करते हैं.
शिक्षा का उद्देश्य - प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य सदाचार की वृद्धि, व्यक्तित्व का विकास, प्राचीन संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक एवं धार्मिक कर्त्तव्यों की शिक्षा देना था. १
छात्र जीवन-ब्राह्मण संस्कृति के अनुसार बालक का विद्यार्थी जीवन, उपनयन संस्कार से प्रारम्भ होता था. अंगशास्त्र में भी उपनयन ( उवणयण) संस्कार का वर्णन है. टीकाकार अभयदेव ने उपनयन का अर्थ 'कलाग्रहण' किया
१. Education in Ancient India, by Altekar पृ० ३२६.
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