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विशद व्याख्या की है, साथ ही चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्यायवैशेषिक, मीमांसा और वेदान्तदर्शन के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का स्पष्ट विवेचन एवं निराकरण किया है। इससे इनके गंभीर पांडित्य का पता चलता है। इनकी एक मात्र कृति प्रमेयरत्नमाला है। अनन्तवीर्य का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी माना जाता है । ५५ अनन्तकीर्ति - आचार्य अनन्तकीर्ति-रचित लघु सर्वज्ञसिद्धि और बृहत् सर्वज्ञसिद्धि नाम से दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रह में छपे हैं। उनके अध्ययन प्रकट होता है कि वे एक प्रख्यात दार्शनिक थे। उन्होंने इन प्रकरणों में वेदों के अपौरुषेयत्व का खंडन करके आगम की प्रमाणता में सर्वज्ञ प्रणीतता को ही कारण सिद्ध किया है। उन्होंने सर्वज्ञता के पूर्वपक्ष में जो श्लोक उद्धृत किए हैं, उनमें कुछ मीमांसाश्लोकवार्तिक के, कुछ प्रमाणवार्तिक के और कुछ तत्त्वसंग्रह के हैं। प्रभाचंद्र ने न्यायकुमुदचंद्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसाधक प्रकरणों में अनन्तकीर्ति की बृहत्सर्वज्ञसिद्धि का शब्दपरक अनुकरण किया है५६ आचार्य माणिक्यनन्दि - ये जैन-न्याय के आद्य सूत्रकार हैं। इनका समय ईसा की नौवीं शताब्दी है। इन्होंने अकलंक देव के वचनरूपी अमृत का मंथन करके न्यायविद्या रूपी अमृत का उद्धार किया था । यद्यपि इनकी रचना परीक्षामुखसूत्र का प्रधान आधार समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंक के ही ग्रन्थ हैं, तथापि सूत्ररचना में विशेष रूप से हेतु के भेद-प्रभेदों के बतलाने में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती बौद्धग्रन्थ न्यायविन्दु का भी भरपूर उपयोग किया है ५८। दोनों ग्रन्थों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
प्रभाचन्द्र आचार्य प्रभाचन्द्र का काल ९५० ई. से १०२० ई. के मध्य माना जाता है। वे एक बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी दर्शनों के प्रायः सभी मौलिक ग्रन्थों का इन्होंने अभ्यास किया था | इतर दर्शनों के ग्रन्थों के उद्धरण के साथ उन्होंने बौद्धों के अभिधर्मकोश, न्यायविन्दु, प्रमाणवार्तिक, माध्यमिकवृत्ति आदि ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं। इनके द्वारा लिखित चार ग्रन्थ माने जाते हैं--१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, २. न्यायकुमुदचन्द्र, ३. तत्त्वार्थवृत्ति, ४. शाकटायनन्यास । प्रमेयकमलमार्तण्ड माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख नामक सूत्र-ग्रन्थ का विस्तृत भाष्य है। अकलंकदेव के लघीयस्त्रय तथा उसकी विवृत्ति के व्याख्यानग्रन्थ का नाम न्यायकुमुदचन्द्र है । तत्त्वार्थवृत्ति आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि
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नामक टीका की लघुवृत्ति है। अंतिम ग्रन्थ शाकटायनन्यास के प्रभाचन्द्रकृत होने का अभी सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सका है । ५९ वादिराज ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायककुमुचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेव के ग्रन्थों के व्याख्याता हैं। चालुक्यनरेश जयसिंह की राजसभा में इनका बड़ा सम्मान था । इनका काल १०१० से १०६५ ई. माना जाता है । इनके द्वारा निम्नलिखित ग्रन्थ प्रणीत हुए - १. पार्श्वनाथचरित, २. यशोधरचरित, ३. एकीभावस्तोत्र, ४. न्यायविनिश्चय-विवरण, ५. प्रमाण - निर्णय। इनमें से अंतिम दो दार्शनिक कृतियाँ हैं । न्यायविनिश्चय-विवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय ग्रन्थ का बीस हजार श्लोकप्रमाण भाष्य है। बौद्धमत समीक्षा में धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञाकर के वार्तिकालंकार की इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आयी। वार्तिकालंकार का आधा भाग इसमें आलोचित है। इसके अतिरिक्त न्यायविनिश्चयविवरण में धर्मोत्तर शांतिभद्र, अर्चट आदि प्रमुख बौद्ध दार्शनिकों की समीक्षा है । प्रमाणनिर्णय एक लघुकाय ग्रन्थ है। इसके चार प्रकरण हैं- १. प्रमाणनिर्णय, २ . प्रत्यक्षनिर्णय, ३. परोक्षनिर्णय, ४. आगमनिर्णय ।
गुणभद्र - जिनसेन द्वितीय के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र थे, जिनका अमोघवर्ष तथा उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय दोनों ही सम्मान करते थे । इन्हें अमोघवर्ष ने अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने गुरु द्वारा प्रारंभ किए गए महापुराण को संक्षेप पूरा किया। इनके द्वारा लिखा गया भाग उत्तरपुराण कहलाता है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित आदि ग्रन्थ भी उन्होंने रचे । ६१
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देवसेन आचार्य देवसेन स्वयं भी गणि थे, अर्थात् गण के नायक थे। ये विक्रम संवत् ९९० में हुए हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों में अपना परिचय नहीं दिया है और न उन ग्रन्थों की रचना का समय बताया है। दर्शनसार ग्रन्थ के पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे मूलसंघ के आचार्य थे। दर्शनसार में उन्होंने काष्ठा संघ, द्राविड संघ, माथुर संघ और यापनीय संघ आदि सभी दिगंबर संघों की उत्पत्ति बतलाई है और उन्हें मिथ्यात्वी कहा है, परंतु मूल संघ के विषय में कुछ नहीं कहा है। अर्थात् उनके विश्वास के अनुसार यही मूल से चला आया है और यही वास्तविक संघ है। इनके द्वारा ये ग्रन्थ लिखे गए - १. दर्शनसार,
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