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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य किया है--
उनका समय पूज्यपाद (विक्रम की छठी शती) और अकलङ्क नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे। यद्वचोवज्रपातेन
(विक्रम की ७वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् विक्रम संवत् विभिन्निा: कुमताद्रयः ।। आदिपुराण १/४३
६२५ के आसपास माना जाता है। सिद्धसेन नाम के एक से
अधिक आचार्य हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमंदिर जैसे कवियों के ब्रह्मस्वरूप समन्तभद्र को नमस्कार हो, जिनकी
का ग्रंथों के रचियता सिद्धसेन दिगंबर संप्रदाय में हुए हैं। इनके साथ वाणी रूपी वज्रपात द्वारा कुमत रूपी पर्वत विभिन्न हो जाते हैं।
दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर संप्रदाय में कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि।
हुए सिद्धसेन के साथ पाया जात. है, जिनकी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ, यशः समन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते।।आदिपुराण १/४४।।
न्यायावतार आदि रचनाएँ हैं। इनका समय सन्मतिसूत्र के कर्ता समन्तभद्र का यश कवियों, गमकों, वादियों तथा वाग्मियों सिद्धसेन से भिन्न है। प्रो. सुखलाल संघवी ने दोनों को एक के मस्तक पर चूडामणि के सदृश शोभा को प्राप्त होता है। मानकर उनका काल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी माना है।
जैन-परंपरा में तर्कयुग या न्याय की विचारणा की नींव जैनसाहित्य के क्षेत्र में दिनाग जैसे प्रतिभासम्पन्न विद्वान डालने वाले ये समर्थ आचार्य हुए, जिनकी उक्तियों को विकसित की आवश्यकता ने ही प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन को उत्पन्न किया है। कर भट्ट अकलंकदेव और विद्यानन्द जैसे आचार्यों ने जैन-न्याय आचार्य सिद्धसेन का समय विभिन्न दार्शनिकों के वादविवाद का की परंपरा का पोषण और संवर्द्धन किया। उनके व्यक्तित्व को समय था। उनकी दृष्टि में अनेकान्तवाद की स्थापना का यह श्रेष्ठ उजागर करने वाला यह आत्मपरिचयात्मक पद्य किंचित् भी। अवसर था। अतः उन्होंने सन्मतितर्क की रचना की। उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगता, जिसमें वे कहते हैं -
विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादों को सन्मतितर्क आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं
में विभिन्न नयवादों में समाविष्ट कर दिया। अद्वैतवादों को उन्होंने दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहं। द्रव्यार्थिक नय के संग्रहनय रूप प्रभेद में समाविष्ट किया। राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायां क्षणिकवादी बौद्धों की दृष्टि को सिद्धसेन ने पर्यायनयान्तर्गत
आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहं।। ऋजुसूत्रनयानुसारी बताया। सांख्यदृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक
हे राजन! इस समद्रवलय रूप पथ्वी पर मैं आचार्य कवि नय में किया और काणात र्शन को उभयनयाश्रित सिद्ध किया। वादिराट, पण्डित, दैवज्ञ, भिषक, मान्त्रिक, तांत्रिक, आज्ञासिद्ध
उनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार में जितने वचनप्रकार हो और सिद्धसारस्वत हूँ। मैं आज्ञासिद्ध हूँ, जो आदेश देता हूँ, वही
सकते हैं, जितने दर्शन एवं नाना मतवाद हो सकते हैं, उतने ही होता है। मुझे सरस्वतीसिद्ध है।
नयवाद हैं। उन सबका समागम ही अनेकान्तवाद है१८१ सांख्य
की दृष्टि संग्रहनयावलंबी है, अभेदगामी है। अतएव वह वस्तु को आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत रचनाएँ निम्नलिखित मानी
नित्य कहे, यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है और बौद्ध जाती हैं--
पर्यायानुगामी या भेद दृष्टि होने से वस्तु को क्षणिक या अनित्य ११. बृहत् स्वयम्भू स्तोत्र, २. स्तुतिविद्या जिनशतक
कहे, यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है, किन्तु वस्तु ३. देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा ४. युक्त्यनुशासन
का सम्पूर्ण दर्शन न तो केवल द्रव्यदृष्टि में पर्यवसित है और न
पर्यायदृष्टि में अतएव सांख्य या बौद्ध को परस्पर मिथ्यावादी ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६ जीवसिद्धि ७. प्रमाणपदार्थ ।
कहने का स्वातंत्र्य नहीं है। ८. तत्त्वानुशासन ९. प्राकृत-व्याकरण १०. कर्मप्राभृत-टीका
श्रीदत्त - तपस्वी और प्रवादियों के विजेता के रूप में श्रीदत्त ११. गन्धहस्ति-महाभाष्य।
का उल्लेख आदिपुराण में किया गया है। ये वादी और दार्शनिक सिद्धसेन - विद्वानों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर सन्मतिसूत्र विद्वान् था आचायाव
विद्वान् थे। आचार्य विद्यानन्द ने इनको ६३ वादियों को पराजित के कर्ता सिद्धसेन के समय निर्धारण का प्रयत्न किया है, तदनुसार करने वाला लिखा है। विक्रम की छठी शती के विद्वान् देवनन्दी
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