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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
तात्पर्य यह कि प्रारम्भिक काल में यद्यपि कर्म सिद्धान्त की सभी मूलभूत बातें अपने अस्तित्व में आ चुकी थीं फिर भी इन प्राचीनतम ग्रन्थों में सुव्यवस्थित रूप से जैन कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं है। न तो इनमें कर्मप्रकृतियों की चर्चा है। न कर्म और गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों की चर्चा है और न कर्मों की उदय, उदीरणा आदि विभिन्न अवस्थाओं का ही चर्चा है। 2. कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थापन काल
डॉ. मिश्र के शब्दों में इस काल में कर्म-सिद्धान्त के सम्बन्ध में निम्न बातों का प्रवेश हुआ --1. कर्म की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का वर्गीकरण, 2. कर्म की मूल एवं उनकी प्रकृतियों के बन्धन के अलग-अलग कारणों का विवेचन 3. बन्धन के 5 हेतुओं का विवेचन और उनका प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्ध से सम्बन्ध और कर्म की उदय, उदीरणा आदि दस अवस्थाओं का उल्लेख, विभिन्न.कर्म प्रकृतियों की न्यूनतम और अधिकतम सत्ता की कालावधि तथा कर्मप्रकृतियों के अलग-अलग फल-विपाक की चर्चा । 3. जैन कर्मसिद्धान्त का विकास काल
ईसा की चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की तेरहवीं शताब्दी तक व्याप्त इस काल की प्रमुख विशेषतायें निम्नवत् हैं -- 1. कर्म सिद्धान्त पर.स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना, 2. कर्मसिद्धान्त का अन्य जैन दार्शनिक अवधारणाओं जैसे गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान, लेश्या आदि से सम्बन्ध, 3. कर्मप्रकृतियों का गुणस्थान और मार्गगास्थान में उदय, उदीरणा आदि की दृष्टि से विस्तत विवेचन, 4. जैन कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में उत्पन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान और 5. जैन कर्मसिद्धान्त को गणितीय स्वरूप प्रदान किया जाना।
यद्यपि जैन परम्परागत रूप में आगमों को और विशेष रूप से अंग-आगमों को अर्थ के रूप में महावीर की और शब्द के रूप में गणधरों की रचना मानते हैं किन्तु विद्वत्समुदाय अनेक कारणों से सभी आगमों यहाँ तक कि सभी अंग आगमों को भी एक काल की रचना नहीं मानता। अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध माना गया है। विद्वान इसे लगभग ई.पू. चतुर्थ शताब्दी की रचना मानते हैं। इसके समकालीन अथवा किचित परवर्ती ग्रन्थों में सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन का क्रम आता है। ये तीनों ग्रन्थ ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी की रचना के रूप में मान्य हैं।
यह माना जाता है कि पाश्र्वापत्य परम्परा के आगमों में जिन्हें हम पूर्वो के रूप में जानते हैं "कर्मप्राभूत" नामक एक ग्रन्थ था जिससे 'कर्मप्रकृति आदि कर्म साहित्य के स्वतन्त्र ग्रन्थों का विकास हुआ। किन्तु कर्मसिद्धान्त के ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में ई.सन की 5वीं शताब्दी के बाद के ही माने गये है। चूंकि हमारा उद्देश्य कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को देखना है अतः इन ग्रन्थों को विवेचना का आधार न बनाकर अर्धमागधी आगम के कुछ प्राचीन ग्रन्थों को ही अपनी विवेचना का आधार बनायेंगें। इस दृष्टि से हमने आचारांग, सूत्रकृतांग ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, स्थानांग और समवायांग में निहित कर्म-सिद्धान्त के तत्त्वों पर विचार किया
आचारांग की कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणायें
सामान्यतया कर्मशब्द का अर्थ प्राणी की शारीरिक अथवा चैतसिक क्रिया माना गया है। किन्तु कर्मसिद्धान्त की व्याख्या में इस शारीरिक क्रिया या मानसिक क्रिया के कारण की और उसके परिणाम की व्याख्या को प्रमुखता दी गयी अतः कर्म के तीन अंग बने -- 1. क्रिया का प्रेरक तत्त्व 2. क्रिया. 3. क्रिया का परिणाम
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