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आपाप्रवन अभिआगार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द
श्रीआनन्दका अन्य १६ प्राकृत भाषा और साहित्य
ब्राह्मण =बम्हण, क्षत्रिय=खतिअ, ध्यान= झाण, दृष्टि-दिदि, रक्षति= रक्खइ, पृच्छति-पुच्छइ. अस्ति = अत्थि, नास्ति नत्थि इत्यादि ।
(३) देश्य (देशी)-प्राकृत में प्रयोग होने वाले शब्दों का एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है कि जो न संस्कृत शब्दों के सदृश है और न उनसे उद्भूत जैसा प्रतीत होता है। वैयाकरणों ने उन शब्दों को देश्य कहा है। उनके उद्गम की संगति कहीं से भी नहीं जुड़ती। जैसे उअपश्य, मुंड=सूकर, तोमरी= लता, खुप्पइ=निमज्जति, हुत्त=अभिमुख, फुटा=केशबन्ध, बिट्टपुत्र, डाल= शाखा टंका= जंघा, धयण गृह, झडप्प = शीघ्र, चुक्कइ=भ्रश्यति, कंदोट्ट=कुमुद, धढ=स्तूप, विच्छहु= समूह ।
इन देश्य शब्दों पर कुछ विचार करना अपेक्षित है। इससे प्राकृत की उत्पत्ति जो एक सीमा तक, अब भी विवादास्पद बनी हुई है, को समझने में सहायता मिलेगी। यदि प्राकृत संस्कृत से निकली होती तो इन देश्य शब्दों का संस्कृत के किन्हीं-न-किन्हीं शब्दों से तो अवश्य सम्बन्ध-स्रोत जुड़ता । पर ऐसा नहीं है। यद्यपि संस्कृत-प्रभावित कतिपय वैयाकरणों ने इन देश्य शब्दों में से अनेक नामों तथा धातुओं को संस्कृत के नामों और धातुओं के स्थान पर आदेश' द्वारा प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है।
आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण में इस प्रकार का उपक्रम द्रष्टव्य है। एतत्सम्बद्ध कुछ सूत्र यहाँ उद्धृत किये जाते हैं---
__ वृक्षक्षिपृयो रुक्खछूढौ ।। २ । १२७ वृक्षक्षिपयोर्यथासंख्यं रुक्ख छुढ इत्यादेशौ वा भवतः ।
वृक्ष और क्षिपृ शब्द को (विकल्प से) क्रमश: रुक्ख और छढ आदेश होते हैं । यथा-वृक्ष:रुक्खो, क्षिपृम्- छूढं, उत्क्षिपृम् - उच्छूटं ।
मार्जारस्य मञ्जरवञ्जरौ ।। २। १३२ मार्जार शब्दस्य मञ्जर वञ्जर इत्यादेशौ वा भवतः ।
मार्जार शब्द को (विकल्प से) मञ्जर और वञ्जर आदेश होते हैं। यथा--मार्जार=मञ्जरो, वञ्जरो।
त्रस्तस्य हित्थतौ ॥ २। १३६ त्रस्त शब्दस्य हित्थ तट्ठ इत्यादेशौ वा भवतः। त्रस्त शब्द को (विकल्प से) हित्थ और तट्ट आदेश होते हैं । यथा-वस्तम् -हित्थं, तट्ट।
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शब्दों के रूप उनमें परिवर्तित होते गये । यद्यपि वे शब्द संस्कृत और प्राकृत में प्रथम स्तर की प्राकृत से समान रूप में आये थे पर, व्याकरण से नियमित और प्रतिबद्ध होने के कारण संस्कृत में वे शब्द ज्यों-के-त्यों बने रहे। प्राकृत में वैसा रहना सम्भव नहीं था। वे ही परिवर्तित रूप वाले शब्द तद्भव कहलाये। अत: तद्भव का अभिप्राय, जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, यह नहीं है कि
वे संस्कृत शब्दों से निकले हैं। १. मित्रवदागमः शत्रुवदादेशः ।
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