________________ आचार्गप्रवर आचार्यप्रवर अभि श्राआनन्दा ग्रन्थ श्रीआनन्द 51 62 प्राकृत भाषा और साहित्य (8) पार्श्वनाथ स्तोत्र (संस्कृत प्राकृत भाषामय) .–श्रीसमयसुन्दर (8) तीर्थङ्कर-चतुविशति-गुरुनामगर्भ-पार्श्वस्तवन, (10) ईर्यापथिकी-विधिभित पार्श्वनाथस्तवन, (11) संस्कृत प्राकृतमय पार्श्वनाथस्तवन, (12) अल्पत्वबहुत्व विचारगर्भित प्राकृत स्तोत्र, (13) यमकबद्ध प्राकृत स्तोत्र, (14) संस्कृत भाषाभिन्नपूर्वार्धात्तरार्ध श्रीजिनस्तवन-धर्मघोषसूरि, (15) ओहाणबन्ध (आभाणकबन्ध) जिनस्तोत्र, (16) संस्कृत-प्राकृतमय श्रीवीरस्तवन, धनपाल (17) संस्कृत प्राकृतमय आदिदेवस्तवन, रामचन्द्रसूरि, (18) महामन्त्रभित अजितशान्तिस्तव, धर्मघोष, (16) नवग्रहश्लेषरूप पार्श्वनाथ लवुस्तव, जिनप्रभसूरि, (20) मन्त्र-भेषजादि गर्मित युगादिदेवस्तव, शुभसुन्दरगणि, (21) पंचकल्याणक कलितक विंशतिस्थानभित-श्रीमल्लिजिनस्तवन, (22) भोज्यादिनामगर्भ जिनस्तवन तथा (23) रसवतीचित्रगर्भ वर्धमानस्तव / उपसंहार प्राकृत भाषा की शब्दगुम्फना में अनुरणन की जो मसृणता सहज उपलब्ध हो जाती है तथा पदों की मदूलता और मांसलता से जो आन्दोलन-माधुरी निखर आती है, वह सचमुच ही सहृदय-हृदयैकगम्य है। यही कारण है कि नाटकों में इस भाषा को सर्वतोभावेन प्रश्रय मिला। कुछ पात्रों के लिए यह भाषा सर्वथा आवश्यक मानी गई / एक काल वह भी आया कि लोकरंजन की भूमिका का निर्वाह करने के लिये संस्कृत भाषा को छोड़ शुद्ध प्राकृत में ही गहन-साहित्य की रचना की जाने लगी। जैन-सम्प्रदाय और उनके आचार्यों ने अपनी साहित्य-साधना का माध्यम प्राकृत भाषा को ही स्वीकार किया। आगमादि समस्त धार्मिक वाङमय इसी भाषा में आकलित है तथा उन्हीं ग्रन्थों के महान दायित्व को चिर-स्थिर रखने के आज भी प्रयास हो रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org