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________________ .४६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-. ...marare.............................. आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और परिग्रह इन दर्शधर्म रूप साधनों का विशेष कथानकों के माध्यम से निरूपण किया जाता है। जीव के भावों का निरूपण भी धर्मकथा का माध्यम होता है। वीरसेनाचार्य ने धवलाटीका में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार प्रकार की धर्मकथाओं का उल्लेख किया है। दशवकालिक में उक्त कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। पात्र एवं चरित्र-चित्रण के आधार पर प्राकृत कथा साहित्य में दिव्या, दिव्यमानुषी और मानुषी इन तीन भेदों का उल्लेख किया है। लीलावई' कथा में दिव्यमानुषी कथा को विशेष महत्त्व दिया है। समराइच्चकहा' में भी दिव्वं, "दिव्वमाणुसं, माणुसं च' अर्थात् दिव्य, दिव्यमानुष और मानुष इन इन कथाओं का उल्लेख किया है तथा इन कथाओं में से देवचरित्र वाली कथाओं को विशेष महत्त्व दिया है। दिव्य-कथाओं में दिव्यलोक (देव-लोक) के पात्र होते हैं और उन्हीं की घटनाओं के आधार पर कथा का विस्तार किया जाता है। दिव्य-मानुष-कथा में देवलोक और मनुष्यलोक के पात्रों के आधार पर कथानक को आदर्श एवं सर्वप्रिय बनाया जाता है। मानुष-कथा में मनुष्य लोक के ही पात्र होते हैं । उनके चरित्रों में पूर्ण मानवता की झलक रहती है। शैली और भाषा के आधार पर कौतूहल कवि ने संस्कृत, प्राकृत और मिश्र इन तीन रूप में वर्गीकरण किया है। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में स्थापत्य के आधार पर पाँच भेद किये हैं-'सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा । तहावरा कहियत्ति सकिण्णकत्ति ।' अर्थात् सकलकथा, खण्डकथा, उल्लासकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा इसमें भी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए सकल कथा को महत्त्वपूर्ण बतलाया है। इसकी शैली महाकाव्य के लक्षणों से युक्त होती है। इसमें शृगार, वीर और शान्त रस में से किसी एक रस की प्रमुखता होती है। इसका नायक आदर्श चरित्र वाला होता है। खण्डकथा की कथावस्तु छोटी होती है। इसमें एक ही कथानक प्रारम्भ से अन्त तक चलता रहता है। उल्लासकथा में नायक के साहसिक कार्यों का निरूपण किया जाता है। परिहास कथा हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण श्रोताओं को हँसाने वाली होती है। मिश्र-कथा में अनेक तत्त्वों का मिश्रण होता है, जो जनमानस के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करती रहती है। प्राकृत-कथा-साहित्य का दृष्टिकोण जितने भी आगम ग्रन्थ हैं, उन सभी में किसी न किसी रूप में हजारों दृष्टान्तों द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों, आध्यात्मिक तत्त्वों, नीतिपरक विचारों एवं गूढ़ से गूढ़ समस्याओं का समाधान प्राप्त हो जाता है। ये आगम ग्रन्थ कथानकों से परिपूर्ण हैं, इनके ऊपर लिखी गयी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि अनेक कथानकों का भी चित्रण करते हैं। आगम-ग्रन्थ केवल धार्मिक या आध्यात्मिक होने के कारण महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही कथा-साहित्य के विकास में प्राकृत साहित्य के इन आगम ग्रन्थों का और भी महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि प्रत्येक आगम मग की नाभि की कस्तुरी की तरह है। जो इनकी गहराइयों में प्रवेश कर जाता है वह अपने विकास के साधनों को अवश्य खोज निकालता है । प्राकृत-कथा साहित्य में प्रयुक्त आख्यान सजीव, मनोरंजक और उपदेशपूर्ण है। आचारांग में महावीर की जीवनगाथा का वर्णन किया है। साधना, तपश्चर्या एवं परीषह सहन का मार्मिक चित्र पढ़ने को मिलता है। कल्पसूत्र में तीर्थंकरों की नामावली का उल्लेख है। न्यायाधम्मकहाओ जो कि मूल रूप से प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों में और दूसरे श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में अनेक ऐसे कथानक हैं, जिन्हें पढ़कर या सुनकर व्यक्ति अपने जीवन की सार्थकथा को समझ सकता है। कूर्म अध्ययन ० ० १ लीलावई-गा० ३५ "तं जह दिब्बा, तह दिवमाणुसी माणुसी तहच्चेय २ समराइच्चकहा का सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ० झनकू यादव ३ डॉ. प्रेमसुमन-कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.211402
Book TitlePrakrit katha Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Story
File Size665 KB
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