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________________ बन्ध के कारण नहीं हैं। तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि में राग, द्वेष व मोह नहीं हैं, क्योंकि राग, द्वेष व मोह के अभाव के बिना सम्यग्दृष्टि नहीं बना जा सकता। राग, द्वेष व मोह के अभाव से उस सम्यग्दृष्टि के द्रव्यास्रव पुद्गल कर्म के बंधने का कारण नहीं बन सकते ; क्योंकि द्रव्यास्रव केपुद्गल कर्म बंधने के कारणपने का कारणपना रागादिक ही है, इसलिए कारण के कारण का अभाव प्रसिद्ध है, इस कारण ज्ञानी का बन्ध नहीं होता। उपर्युक्त राग, द्वेष तथा मोह सांख्य के अनुसार प्रकृति के धर्म हैं तथा जैनदर्शन में भी इनका कारण कथंचित् प्रकृति (द्रव्यकर्म) है। मोह के चिह्न-पदार्थों का अन्यथाग्रहण, तिर्यंच-मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति यह सब मोह के चिह्न हैं।' शूद्धात्मादि पदार्थ जो कि यथास्वरूप स्थित हैं, उनमें विपरीताभिनिवेश से अयथाग्रहण अन्यथाग्रहण है। शुद्धात्माकी उपलब्धि लक्षण परम उपेक्षा संयम से विपरीत दयापरिणाम करुणाभाव है अथवा व्यवहार से यहां करुणा का अभाव ग्रहण किया जा सकता है। ये सब दर्शनमोह के चिह्न हैं। निविषय सुखास्वाद से रहित बहिरात्मा जीवों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों में जो प्रकृष्टता से संसर्ग है, उसे देखकर प्रीति और अप्रीतिरूप लिगों से चारित्रमोह नाम वाले रागद्वेष जाने जाते हैं। उक्त जानकारी के अनन्तर ही निविकार स्वशुद्ध भावना से राग, द्वेष तथा मोह नष्ट करने चाहियें।' मोहक्षय के उपाय--प्रवचनसार में मोहक्षय के निम्नलिखित उपाय बतलाए गए हैं 1. जिनशास्त्र का अध्ययन-जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह का समूह क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए। तात्पर्य यह कि वीतराग सर्वज्ञप्रणीत शास्त्र से कोई भव्य एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है, इत्यादि परमात्मा के उपदेशक श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को जानता है, तदनन्तर विशिष्ट अभ्यास के वश परमसमाधि काल में रागादि विकल्प से रहित मानसप्रत्यक्ष से उसी आत्मा की जानकारी करता है, अथवा उसी प्रकार अनुमान से जानकारी करता है। जैसे कि 'इसी देह में निश्चयनय से शुद्ध, बुद्ध, एकस्वभाव वाला परमात्मा है, क्योंकि निर्विकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो रहा है, जैसेकि सुखादि का प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार अन्य पदार्थ भी यथासंभव आगम के अभ्यास के बल से उत्पन्न प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से जाने जाते हैं। अत: मोक्षार्थी भव्य को आगम का अभ्यास करना चाहिए। जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह राग-द्वेष को हनता है, वह अल्पकाल में समस्त दुःखों से छूट जाता है। 2. स्व-पर विवेक-यदि आत्मा अपनी निर्मोहता चाहता है तो जिनमार्ग से गुणों के द्वारा द्रव्यों में स्व और पर को जाने अर्थात् जिनागम द्वारा ऐसा विवेक करना चाहिए कि अनन्त द्रव्यों में से यह स्व है और यह पर है। निर्वाण को सम्प्राप्ति--प्रवचनसार की आरम्भिक गाथाओं में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके उनके विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आस्रव की प्राप्ति के अनन्तर साम्यभाव की प्राप्ति बतलाई है तथा साम्यभाव से मोक्ष की प्राप्ति प्रतिपादित की गई है। आचार्य जयसेन और अमृतचंद्र ने यहां सम्मं का अर्थ चारित्र माना है। अमृतचन्द्राचार्य ने उसके वीतराग और सराग दो भेद किए हैं तथा वीतराग चारित्र की प्राप्ति मुख्य ध्येय बतलाई है। वे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन सम्पन्न होकर जिसमें कषाय-कण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्यबंध की प्राप्ति का कारण है ऐसे सराग चारित्र को-वह (सराग चारित्र) क्रम से आ पड़ने पर भी दूर उल्लंघन करके जो समस्त कषाय-क्लेश रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण प्राप्ति का कारण है, ऐसे वीतराग चारित्र को प्राप्त करता हूं। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस रूप में वणित किया है कि चारित्र धर्म है और जो धर्म है वह साम्य है तथा साम्य मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है / तात्पर्य यह कि धर्म, चारित्र और साम्य ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है, उस समय तन्मय है। इसलिए धर्मपरिणत आत्मा को धर्म समझना चाहिए। इस धर्म (चारित्र अथवा साम्यभाव) से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। 1. समयसार, 177 2. वही, आत्मख्याति टीका, 10244 3. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, 85 4. वही 5. जिण सत्थादो अछे पच्चक्खादीहि बुज्झदो णियमा / खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदब्वं / ', प्रवचनसार, 86 6. वही, तात्पर्यवृत्ति व्याख्या, 86 7. प्रवचनसार, 10 2. 'किच्चा अरहन्ताण..........."सत्वेसि / तेसि विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज / उवसंपयामि सम्म जत्तो णित्वाण संपत्ती // ', प्रवचनसार 4-5 6. वही, तत्त्वप्रदीपिका तथा तात्पर्य वृत्ति, 4/5 10. प्रवचनसार, 7-8 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211395
Book TitlePravachanasara me Samsar aur Moksha ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size665 KB
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