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________________ प्रवचनसार में संसार और मोक्ष का स्वरूप डॉ० रमेश चन्द जैन संसार-आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार संसरण करते हुए (गोल फिरते हुए, परिवर्तित होते हुए) द्रव्य की क्रिया का नाम संसार है। संसार में स्वभाव से अवस्थित कोई नहीं है। जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है। उसमें मनुष्यादिक पर्यायें होती हैं।' अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जीव के साथ किस कारण पुद्गल का सम्बन्ध होता है कि जिससे उसकी मनुष्यादि पर्यायें होती हैं ? इसका उत्तर यह है कि कर्म से मलिन आत्मा कर्मसंयुक्त परिणाम को (द्रव्यकर्म के संयोग से होने वाले अशुद्ध परिणाम को) प्राप्त करता है, उससे कर्म चिपक जाता है, इसलिए परिणाम कर्म है। द्रव्यकर्म परिणाम का हेतु है; क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही (अशुद्ध)परिणाम देखा जाता है। प्रश्न...ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आएगा। उत्तर-नहीं आएगा; क्योंकि अनादि सिद्धद्रव्य कर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा को जो पूर्व का द्रव्यकर्म है, उसका यहां हेतु रूप से ग्रहण किया गया है। पुद्गल पिण्डों को कर्म रूप करने वाला आत्मा नहीं है-लोक चारों ओर सूक्ष्म तथा बादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्कन्धों के द्वारा अवगाहित होकर गाढ़ भरा हुआ है। कर्मत्व योग्य स्कन्ध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्मभाव को प्राप्त होते हैं, जीव उनको नहीं परिणमाता। कर्मरूप परिणत वे पुद्गल पिण्ड देहान्तर रूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः पुन: जीव के शरीर होते हैं। अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक पुद्गल के साथ बन्ध-जैसे रूपादि रहित जीव रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को देखता है और जानता है, उसी प्रकार अरूपी आत्मा का रूपी पुद्गल के साथ बन्ध होता है। भावबन्ध-जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है वह जीव उन मोह, राग, द्वेष के द्वारा बन्ध रूप है। द्रव्यबन्ध का निमित्त भावबन्ध-आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जीव जिस भाव से विषयागत पदार्थ को देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है और उसी से कर्म बंधता है। इसी की व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं- 'यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभास स्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (विकार)है, वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्वस्थानीय भावबन्ध है और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बंधता है । इस प्रकार यह द्रव्यबन्ध का निमित्त भावबन्ध है।" १. 'संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दब्वस्स', प्रवचनसार, १२० २. 'तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे', वही, १२० ३.वही, तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, पृ०२४७-२४८ ४. प्रवचनसार, १२१ ५. वही, तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, १२१ ६. प्रवचनसार, १६८-१६६ ७. वही, १७० ८. वही, १७४ है. वही, १७५ १०. वही, १७६ ११. तस्वप्रदीपिका व्याख्या, १७६ १६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211395
Book TitlePravachanasara me Samsar aur Moksha ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size665 KB
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