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________________ जैन परंपरा में सबसे पहले तार्किक सिद्धसेन और समंतभद्र हैं, जिन्होंने लौकिक दृष्टि से प्रमाण के फल का विचार रखा।' प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति ही है, व्यवहित अर्थात् परंपराफल हानोपादानोपेक्षाबुद्धि है। आचार्य विद्यानंद ने अज्ञाननिवृत्ति और स्वपरव्यवसिति रूप प्रमाण के फल की ओर संकेत किया—जिसका अनुसरण प्रभाचंद्राचार्य ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में और देवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में किया। यह स्मरण रहे कि केवलज्ञान का फल केवल उपेक्षा ही है। केवलज्ञानी वीतरागी है, अतः उसमें रागद्वेष-मूलक हेय उपादेय बुद्धि नहीं हो सकती। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में-हान, उपादान और उपेक्षा तीनों बुद्धियां फल रूप होती हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा और हानादि बुद्धि---इस धारा में अवग्रह केवल प्रमाण ही है और हानादि बुद्धि केवल फल ही, परन्तु ईहा से धारणापर्यंत ज्ञान पूर्व की अपेक्षा फल होकर भी अपने उत्तरकार्य की अपेक्षा प्रमाण भी हो जाते हैं / एक ही आत्मा का ज्ञानव्यापार जब ज्ञेयोन्मुख होता है तब वह प्रमाण कहा जाता है और जब उसके द्वारा अज्ञाननिवृत्ति या अर्थप्रकाश होता है तब वह फल कहलाता है। इस प्रकार प्रमाण का फल (प्रमिति) प्रमाण से कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न है। सामग्री प्रामाण्यवाद में कारकसाकल्य या इन्द्रियवृत्ति प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अचेतन और अज्ञानरूप है। अज्ञानरूप व्यापार प्रमा में साधकतम न होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता। संसार परम-दुःख रूप है, इसमें एक दुःख नहीं सबकुछ दुःख ही दुःख है। प्रथमतः यह जीव निगोद में एक श्वास में अठारह-अठारह बार जन्म लेता है / साधारण नामकर्म के उदय से यह शरीर में अनन्तकाल के लिए जन्म लेता है। यह शरीर अनन्तानन्त जीवों का होता है, अतः वे अनन्तानन्त जीव एक साथ जन्म लेते हैं और एक साथ ही मरते हैं / संसार में जीव की हितकारक वस्तु कोई नहीं है, इसीलिए इस जगत् से उदासीन होकर जो आत्मचिंतन में लगे रहते हैं वही सुखी हैं / ज्ञान को आत्म-चिंतन में लगाना ही श्रेय है और यही परम निःश्रेयस (मोक्ष) का साधन है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान ही सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का साधन है और स्वानुभूतिरूप ज्ञान ही सम्यग्दर्शन का लक्षण है / सारसमुच्चय में कहा भी गया है स्वहितं तु भवेज्ज्ञानं चारित्रं बर्शनं तथा। तपःसंरक्षणं चैव सर्वविद्भिस्तदुच्यते // 156 // हे आत्मन् ! तुम्हारा हित सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सभ्यश्चारित्र व तपःसंरक्षण है। अभिप्राय यह है कि आत्मा का हित केवल रत्नत्रयरूप धर्म ही है / अत: इसमें ही रुचि रखनी चाहिए, जिससे कि जीव मोक्ष प्राप्त कर सके। (आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह, भाग 3, दिल्ली, वि० सं० 2013 से उद्धृत) 1. आप्तमीमांसा, का० 102; न्याया०, का०२८ 2. 'अब्यवहितमेव-अज्ञाननिवृत्तिर्वा', प्रमाणमीमांसा, 1/38 3. परीक्षामुख, प्र०५, सू० 1-2 4. तत्त्वार्थश्लोक०, पृ० 168, प्रमाणपरीक्षा, पृ०७६ 5. 'प्रमाणस्य फलं साज्ञादज्ञान विनिवर्तनम् / केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्यादानहानधी // ', न्याया०, 28 6. 'अवग्रहादीनां वा क्रमोपजनधर्माणां पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरमुत्तरं फलम्', प्रमाणमीमांसा, 1/36 7. 'सिद्ध यन्न परापेक्ष्यं सिद्धौ स्वपररूपयोः। तत्प्रमाण ततो नान्यदपि कालमचेतनम् / ', सिद्धिविनिश्चय 8. 'अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम्', न्यायमं०, पृ० 12 6. न्यायविनिश्चय टीका, लि० पृ० 30 112 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211391
Book TitlePramanmimansa Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrichand Choradiya
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size807 KB
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