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________________ । ३२ ] मान नबाब और सभीलोगों द्वारा सूरिजी का ऐसा प्रवेशो- पट्टधर श्री जिनपद्मसूरि का Tोत्सा म. त्सव किया गया जो सं० १२३८ में अन्तिम हिन्दू सम्राट धूम-धाम से हुआ। श्रीजिनपद्मसूरिजी ने ५ उपाध्याय पृथ्वीराज द्वारा किये अजमेर के उत्सव की याद दिलाता १२ साधुओं के साथ जेमलर पधारदार चातुमास किया । था। तदनन्तर देरावर पधार कर सं० १३८६ का चतुर्मास इनके अतिरिक्त आपका शिष्य परिवार बहुत बड़ा थ. . वहीं किया। बारह साधुओं के साथ उच्चानगर जाकर उ० विनयप्रभ, सोमप्रभ इत्यादि की परम्परा मैं बहुत से मासकल्प किया। फिर अनेक ग्राम नगरों में विचरते हुए बड़े-बड़े विद्वान और ग्रन्थकार हुए हैं। विनयप्रभोपाध्याय परशुरोरकोट गए। वहां से बहिरामपुर होते हुए उन्नवि- का गौतमरास जैन समाज में बहुप्रचलित रचना है आपका हारी श्री जिनकुशलसूरिजी देरावर पधारे और सं० १३८७ संस्कृत में नरवर्मचरित्र एवं कई स्तोत्रादि उपलब्ध हैं। का वहीं चातुर्मास वहीं किया। श्रीजिनकुशलसूरि जी ने अपने जीवन में शासन की ___ सं० १३८८ में उच्चापुर, बहिरामपुर, क्यासपुर, बड़ी प्रभावना की उन्होंने पचास हजार नये जैन बनाकर सिलारवाहण आदि सभी स्थानों के श्रावकों की उपस्थिति परम्परा-मिशन को अक्षुण्ण रखा। आप उच्चकोटि के विद्वान और प्रभाशाली व्यक्ति थे। दादाश्रीजिनदत्तसूरि में मार्गशीर्ष शु० १० को व्रतग्रहणादि नन्दीमहोत्सवपूर्वक जी कृत चैत्यवंदन कुलक नामक २७ गाथा की लघु कृति विद्वत् शिरोमणि तरुणकीत्ति को आचार्य पद देकर तरुण पर ४००० श्लोक परिमित टीका रचकर अपनी अप्रतिम प्रभाचार्य नाम से प्रसिद्ध किया। पं० लब्धिनिधान को प्रतिभा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसमें २४ धर्म उपाध्याय पद दिया, जयप्रिय, पुण्यप्रिय एवं जयश्री, धर्मश्री, कथाएँ हैं जिनमें श्रेणिक महाराज कथा तो ६४५ श्लोक को दीक्षित किया। सं० १३८६ का चातुर्मास देरावर परिमित हैं। इस ग्रन्थ में अनेक सिद्धान्तों के प्रमाण भी में किया और तरुणप्रभाचार्य व लब्धिनिधानोपाध्याय को उद्धत हैं। आपकी दूगरी कृति जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्तस्याद्वादरत्नाकर, महातर्क रत्नाकर आदि सिद्धान्तों का तिका प्राकृत की ७४ गाथाओं में है। इसके अतिरिक्त परिशीलन करवाया। माघ शुक्ल में तीब्रज्वर व श्वास की कई स्तोत्रादि भी संस्कृत में अनेक रचे थे, जिनमें 8 स्तोत्र व्याधि होने पर अपना आयुशेष निकट ज्ञातकर श्री तरुण- उपलब्ध हैं । प्रभाचार्य व लब्धिनिधानोपाध्याय को अपने पद पर आप अपने जीवितकाल में जिस प्रकार जैन संघ के पद्ममूत्ति को गच्छनायक बनाने की आज्ञा देकर अनशन महान उपकारी थे स्वर्गवास के पश्चात् भी भक्तों के मनो• करके मति फाल्गुन कृष्ण ५ की रात्रि के पिछले पहर में वांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सदृश हैं। आपने अनेकों स्वर्ग सिधारे। विद्युतगति से समाचार फैलते ही सिन्ध को दर्शन दिए हैं और स्मरण करने वालों के लिए हाजरा देश के गाँवों के लोग देरावर आ पहुंचे। फा० कृ०६ हजूर हैं। यही कारण है कि आज ६३७ वर्ष बीत जाने को ७५ मंडपिकाओं से मंडित निर्यान विमान में विराज- पर भी आप प्रत्यक्ष हैं। आप भवनपति-महद्धिक कर्मेन्द्र मान कर बड़े महोत्सवपूर्वक शोकाकुल संघ ने नगर के नामक देव हैं। जीवितकाल में भी धरणेन्द्र आपका भक्त राजमार्गों से होते हए सूरिजी के पावन शरीर को स्मशान था और स्वर्ग में भी धरणेन्द्र-पदमावती इन्द्र-इन्द्राणी से में ले जाकर अग्निसंस्कार किया। अभिन्न मैत्री है। आज सारे भारतवर्ष में आपके जितने सूरिजी के अग्नि-संस्कार स्थान में सुन्दरस्तूप निर्माण चरण व मूर्तियाँ-दादावाड़ियाँ हैं, अन्य किसी के नहीं। किया गया जो आगे चलकर तीर्थ रूप हो गया। मिती यहा एक गुरुदेव के महत्व का साक्षात् उदाहरण हैं । ९-१० ज्येष्ठ शुक्ल ६ को हरिपाल कारित आदिनाथ प्रतिमा, वर्ष बाद आपके जन्म को सात सौ वर्ष पूरे होते हैं आशा देरावर स्तूप, जेसलमेर और क्यासपुर के लिये श्रीजिनकुशल- है भक्त गण अष्टम जन्म शताब्दी बड़े समारोह से मनाकर मूरिजी की तीन मूर्तियों का प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211377
Book TitlePragatprabhavi Dada Jinkushalsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherZ_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Publication Year1971
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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