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________________ २५४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ अतिथिसंविभाग में-स्वपरानुग्रह है, लोभ परिहार स्वानुग्रह है और हिंसा परिहार भी है । ज्ञानादिक सिद्धि में निमित्त होने से परानुग्रहता भी है। विधि-द्रव्य-दाता-पात्र विशेष का परिज्ञान जागृत विवेक से ही संभव है। नवधा भक्ति विधि विशेष है। फलानुपेक्षा, क्षमा, ऋजुता, प्रमोद होना, असूया का और विषद, अहंकार का अभाव होना ये सात गुण होना दाता की विशेषता है। रागादिकों की उत्पत्तिकारकता नहीं होना द्रव्यकी विशेषता है। मुक्ति कारण गुणों की अभिव्यक्ति होने से अविरत सम्यग्दृष्टि व्रती श्रावक और मुनि जघन्य मध्यम उत्कृष्ट पात्र विशेष है। सल्लेखना-को कहीं कहीं १३ वा व्रत या व्रत मंदिर के कलश कहते है। प्रयत्न पूर्वक की गयी धर्म साधना धर्म धन है उसे साथ में ले जाने की प्रक्रिया सल्लेखना है। कषायों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर्यायों का उत्तरोत्तर अभाव होता जाय इसलिए सल्लेखना में इच्छा का अभाव होता ही है । स्थूल दृष्टियों ने मात्र देह दण्ड की प्रक्रिया को देखा और उसे आत्महत्त्या कहा यह तत्त्व विटंबना है। जो विचार विवेकशून्यता को बतलाया है । सल्लेखना मूर्तिमान अहिंसारूप है और आत्महत्त्या कोरी हिंसा है। अतिचारों का वर्णन १६ श्लोकों में (१८१ से १९६) आया है। अतिचार केवल उपलक्षण रूप होते हैं इस प्रकार संभवनीय दोषों से व्रतों को बचाना चाहिए। मुनियों के सकलचारित्र का वर्णन १४ श्लोक में (१९७ से २१०) संगृहित है। अनशन, अवमोदर्य, वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये बाह्य तप है। विनय वैय्यावृत्त्य, प्रायश्चित्त व्युत्सर्ग स्वाध्याय ध्यान ये आभ्यंतर तप है। समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग इन छह को आवश्यक कहते हैं। तीन गुप्ति, पांच समितियों के पीछे 'सम्यक् ' विशेषण वैशिष्ट्यपूर्ण है। दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजयों का वर्णन टीका और भाष्यों में जानने योग्य है । साधक अवस्था में अंतर्मुख दृष्टि पूर्वक रत्नत्रय की भावना होती है। विशुद्धता और राग का या विचार और विकारों का नित्यप्रति द्वंद्व होता है ऐसी अवस्था में बंध जो भी होता है वह रागभाव से होता है वह रत्नत्रय का विपक्षी है। रत्नत्रय हर हिस्से में मोक्ष का ही उपायभूत है। योग और कषाय बंधन के कारण है रत्नत्रय न योगरूप है न कषायरूप, वह तो शुद्धस्वभावरूप ही है। शुद्ध आत्म निश्चिति सम्यग्दर्शन है, शुद्ध आत्मस्वरूपज्ञान सम्यग्ज्ञान है और शुद्ध आत्मा में स्थिरता ही चारित्र है इनसे बंध कैसे संभाव्य है ? वह निर्वाण का-परमात्मपद का ही कारण है । ___ सम्यक्त्व की और विशिष्ट विशुद्धतारूप चारित्र की सत्ता में तीर्थंकर नामकर्म, आहारक शरीर नामकर्म तथा उपरिम ग्रैवेयकादि संबंधी देवायु का बंध वर्णन शास्त्रों में जो आया है वह विशुद्धता के साथ संलग्न योग और कषाय मूलक ही है। कषायों की विलक्षण मंदता को शुभोपयोग कहते हैं। वह पुण्यास्रव में हेतुभूत होता है आचार्यों की तत्त्व दृष्टि उसे (शुभोपयोगी) अपराध कहती है । ___ श्लोक २११ से २२२ इन १२ गाथाओं में आया हुआ सूक्ष्म तत्त्वविवेचन स्वयं स्वतंत्र ग्रंथ की योग्यता रखता है। दवाई की बोतल को लगी हुई प्रामाणिक कंपनी की प्रामाणिक मुहर की तरह आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211368
Book TitlePurusharth Siddhyupaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikchand Chavre
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size846 KB
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