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________________ वासुदेवशरण अग्रवाल : पुरुष प्रजापति : ५२७ शरीर में अपने ही जैसा उत्पन्न करने की एक शाक्ति आती है, उसी का घनीभूत रूप रेत या बीज है. यही रेतोऽण्ड अवस्था है. इस अवस्था को प्राप्त करते ही प्रत्येक शरीर क्षयोन्मुख होने लगता है. यही अपक्षीयते-स्थिति है. ये पांचों अगर व्यक्तभाव के ही परिणाम है. अव्यक्त जब कभी व्यक्तभाव को प्राप्त करेगा उसे पांच भावविकारों की ऋमिक स्थिति प्राप्त करनी होगी. शतपथब्राह्मण की यह अत्यन्त रहस्यमयी विद्या है. यह विषय अत्यन्त गुढ़ और क्लिष्ट है, किन्तु सष्टिव्यापिनी निर्माणप्रक्रिया को समझने के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी है. अर्वाचीन शती का मानव विश्व की पहेली को वैज्ञानिक दृष्पि से समझना चाहता है. आधुनिक वैज्ञानिकों के प्रयत्न विश्वरहस्यमीमांसा को स्पष करने में लगे हुए हैं. सृष्टि का मौलिक तत्त्व क्या है? क्यों इसकी प्रवृत्ति होती है ? इसके मूल में कौन-सी शक्ति है? उसका स्पन्दन किस कारण से हुआ और किन नियमों से आज वह प्रवृत्त है ? शक्ति की प्राणनक्रिया और स्थूल भौतिक पदार्थों में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? गति और स्थितिसंज्ञक द्विविरुद्ध भावों का जन्म क्यों होता है और उनका स्वरूप क्या है ? इत्यादि एक से एक रोचक और महत्वपूर्ण प्रश्न सृथिविद्या के सम्बन्ध में हमारे सामने आ खड़े होते हैं. उनके समाधान का सच्चा प्रयत्न आज के वैज्ञानिक कर रहे है. नित्य नूतन प्रयोगों द्वारा वे विश्व की मूलभूत शक्ति के स्वरूप और रहस्य को जानने में लगे हैं. वैज्ञानिक तत्त्ववेत्ताओं ने इतना अब निश्चय पूर्वक जान पाया है कि स्थूल भौतिक सृष्टि जिसे हम भूतमात्रा, अर्थमात्रा या बैदिक परिभाषा में वाक् कहते हैं, अन्ततोगत्वा शक्ति के स्पन्दन का ही परिणाम है. विश्व के सब पदार्थ मूलभूत शक्ति की रश्मियों के स्पन्दन से घनीभूत या व्यवस्थित हुए हैं. यह शक्ति विश्व की प्राणनकिया है. प्रत्येक भूत में यह विद्यमान है. बुद्धिमान् उसे हर एक भूत में देखते और पहचानते हैं - __ भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः आज परमाणु के विशकलन ने यह सम्भव कर दिया है कि शक्ति के इस रहस्य की झांकी मानव को प्राप्त हो सकी है. किन्तु भूतमात्रा और प्राणमात्रा के सदृश ही तीसरी प्रज्ञानमात्रा भी है, जो समस्त सृष्टि में उसी प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार भूतमात्रा और प्राणमात्रा. लोष्ठ, पाषाण आदि असंज्ञ वृक्ष-वनस्पति आदि अन्तःसंज्ञ एवं पशु-मनुष्य आदि ससंज्ञ भुतों में सर्वत्र अव्ययात्मा का वोवशीयस्मन अवश्य ही व्याप्त है. सबके जन्म, स्थिति और लय के पीछे मूलभूत त्रिक का नियम एक समान है. अवश्य ही विश्व में वैचित्र्य और विज्ञान की अनेक कोटियां पाई जाती हैं जिनका स्पष्ट अन्तर कीटपतंग आदि की मानव से तुलना करने पर समझा जा सकता है. प्रजापति का जो अमृत और अनिरुक्त स्वरूप है, उसकी भाषा को समझने की जो स्थिति हो सकती है विज्ञान भी शीघ्रता से उस ओर बढ़ रहा है और विश्वविज्ञान के तत्त्ववेत्ताओं की मौलिक चिन्तनप्रवृत्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह समय दूर नहीं है जब देश और काल के अतिरिक्त तीसरी सत्ता को भी मानने से ही विश्वनिर्माण की व्याख्या ठीक प्रकार करना सम्भव होगी. एक समय था जब देश के आयतन पर आधारित ज्यामिति द्वारा भूतों के निर्माण की मीमांसा की जाती थी. वैज्ञानिकप्रवर आइन्स्टाइन ने इस विचार में महती क्रांति की और देश के साथ काल को भी सृष्टि निर्माण के मौलिक तत्त्व रूप में सिद्ध किया. गणित और भौतिक विज्ञान की उपपत्ति द्वारा यह तत्त्व सबके लिये मान्य हुआ. देश और काल सृष्टि के निर्माण का अनिवार्य चौखटा है. इसी सांचे में पड़कर भूतसृष्टि ढल रही है. देश और काल को ही नाम और रूप कहा गया है. शतपथ के अनुसार नाम और रूप दोनों बड़े यज्ञ हैं जिनके पारस्परिक विमर्द या संघर्ष से यह सब कुछ हो रहा है. शक्ति की संक्षा ही यज्ञ है, किन्तु नाम और रूप दोनों अभ्व यक्ष कहे गये हैं, जो होकर भी नहीं है (भूत्त्वा न भवतीति) उसे अभ्व कहते हैं. नामरूपात्मक सारा विश्व वैदिक दृष्टि से अभ्व ही है. वैज्ञानिक की दृधि में भी यह सारा विश्व शक्ति के मुल आधार पर तरंगित नामरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं है, जो देश और काल के टकराने से अस्तित्व में आया है, आ रहा है और आता रहेगा. वह जो मूलभूत शक्ति है उसके सम्बन्ध में वैज्ञानिक को भी अभी बहुत कुछ जानना है. विश्वरश्मियां (कास्मिक रेडियेशन कहाँ से आती हैं, उनका स्रोत क्या है ? शक्ति का जो समान वितरण इस समय हो रहा है, उसकी उल्टी प्रक्रिया भी क्या कभी सम्भव है कि जिसके कारण महासूर्य JainE brary.org
SR No.211367
Book TitlePurush Prajapati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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