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________________ १२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय काममय पुरुष ही श्वोवसीयस् मन है. यही पुरुषमन मौलिक मनुतत्त्व है जो सबका प्रशास्ता और सर्वान्तर्यामी है. इसी की ज्ञानमात्रा उत्तरोत्तर सुषुप्त्यधिष्ठाता सत्त्वमूर्ति महन्मन में, और वहां से इन्द्रियप्रवर्तक अशनायारूप सर्वेन्द्रिय मन में, और अन्त में नियतविषयग्राही इन्द्रियों के अनुगामी इन्द्रियमन में अवतीर्ण या अभिव्यक्त होती है. एक-एक इन्द्रिय का रूप रस घ्राण आदि नियत विषय इन्द्रियमन से गृहीत होता है. इसी को 'पंचेन्द्रियाणि मनःषष्ठानि' कहा जाता है. फिर पांचों इन्द्रियों का अनुकूल प्रतिकूल वेदनात्मक जो व्यापार है, वह सब इन्द्रियों में समान होने से सर्वेन्द्रियमन का विषय है. इसे अनिन्द्रिय मन भी कहा जाता है. जब चलते हुए किसी एक इन्द्रियविषय का अनुभव नहीं होता, तब भी सर्वेन्द्रियमन अपना कार्य करता रहता है. भोगप्रसक्ति के विना भी विषयों का चिन्तन यही मन करता है. सुषुप्तिदशा में अपने इन्द्रियप्राणों के साथ मन जब आनन्द की दशा में शान्त हो जाता है, जब सब इन्द्रियव्यापार रुक जाते हैं, वह तीसरा सत्वगुणसम्पन्न सत्वैकधन महान् मन कहा जाता है. उस सत्वमन से भी ऊपर चौथा अव्ययमन या सष्टि का मौलिक चिदंश पुरुषमन है जिसे श्वोवमीयस् मन कहते हैं और जिसका सम्बन्ध परात्पर पुरुष की सृष्टियुम्मुखी कामना से है. वही अणु से अणु और महतो महीयान् है. केन्द्रस्थभाव मन है. वही उक्थ है. जब उसी से अर्क या रश्मियां चारों ओर उत्थित होती हैं तो वही परिधि या महिमा के रूप में मनु कहलाता है. यही मन और मनु का सम्बन्ध है यद्यपि अन्ततोगत्वा दोनों अभिन्न हैं. स्वयम्भू स्वयं प्रतिष्ठित सृष्टि का मूल तत्त्व है. वह स्वयं विश्वसर्ग की क्रमधारा से परे रहता हुआ कभी किसी प्रकार अणुभाव में परिणत नहीं होता. उसे वृत्तौजा या वर्तुलाकार कहा गया है. किन्तु उससे ही जब सृष्टि की प्रवृत्ति आरम्भ होती है, तब त्रिवृत् भाव का विकास हो जाता है. त्रिवृत्भाव के ही नामान्तर मन, प्राण, वाक् हैं. उनके और भी अनेक पर्याय वैदिक-साहित्य में आते हैं. त्रिवृत् या त्रिक के उत्पन्न होते ही स्वयम्भू का एक केन्द्र तीन केन्द्रों में परिणत हो जाता है. इस विकेन्द्रक सृष्टि का नाम ही अण्डसृष्टि है, जो कि ज्यामिति की परिभाषा में वृत्तायत आकृति वाली अण्डाकृति होती है. यही वैदिक भाषामें त्रिनाभिचक्र है. स्वयम्भू के बाद सृष्टिक्रमधारा में पांच अण्डों का जन्म होता है. उनमें पहला 'अस्त्वण्ड' है, जिसका सम्बन्ध परमेष्ठी या महान् आत्मा से है. स्वयम्भू से गभित परमेष्ठी त्रिवृत् भाव के प्रथम जन्म के कारण अण्डाकार बनता है. स्वयम्भू ने सर्व प्रथम कल्पना की कि यह सृष्टि उत्पन्न हो : तद्भ्यमृषत् अस्तु इति. इसी कारण यह पहला अण्ड अस्त्वण्ड कहलाया. स्वयम्भूब्रह्म को अपने गर्भ में रखने वाला परमेष्ठी का आपोमण्डल अस्त्वण्ड ही ब्रह्माण्ड कहलाता है. इसके बाद सूर्य से दूसरा हिरण्मयाण्ड उत्पन्न होता है. जैसा कहा जा चुका है कि व्यक्तभाव की संज्ञा हिरण्य है अतएव हिरण्मयाण्ड का सम्बन्ध अस्ति या गभित अवस्था से नहीं वरन् उस अवस्था से है जब कि गर्भ आगे चल कर जन्म ले लेता है, अथवा अव्यक्त व्यक्तभाव में आ जाता है. पहली स्थिति या अस्त्वण्ड का संबंध अस्तिभाव से है. दूसरी का संबंध जायते या जन्म से है. जन्म के अनतंर तीसरा भाव वर्द्धते अर्थात् वृद्धि से है. इसे ही पोषाण्ड कहते हैं जिसका संबंध भूपिण्ड या पृथ्वी से है. पुष्ट होने के अनंतर परिपाक की अवस्था आती है. जिसे 'विपरिणमते' इस शब्द से कहा जाता है इसे यशोऽण्ड कहते हैं. यह वस्तु का महिमाभाव है और इसका सम्बन्ध महिमा पृथ्वी से है. महिमा ही यश है. इसके अनन्तर प्रत्येक वस्तु क्षीण होने लगती है. वह अपक्षीयते अवस्था चन्द्रमा के विवर्त हैं और उसे रेतोऽण्ड कहा गया है. इन पांच ब्रह्माण्डों की समष्टि ही विश्व है और विश्वरूप समर्पक स्वयं भूब्रह्म स्वयं विश्वनिर्माण करने के कारण विश्वकर्मा कहलाता है. महान् विश्व से लेकर यच्च यावत् जितने भूत या उत्पन्न होने वाले पदार्थ हैं उन सबमें अस्ति, जायते, वर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते-ये पांच भाव विकार अवश्य होते हैं. एक एक बीज में प्रकृति का यही नियम चरितार्थ हो रहा है. स्वयं बीज अस्त्वण्ड है. उनमें से अंकुर का फूटना अर्थात् अव्यक्त विटप का व्यक्तभाव में आना हिरण्यमयाण्ड है. भूपिण्ड से अपनी खुराक लेकर अंकुर का बढ़ना उसका पोषाण्डरूप है. फिर उस अंकुर का अपने सम्पूर्ण महिमाभाव को प्राप्त होकर पूरा वितान करना यह उस बीज का यशोऽण्डरूप है. दिक्चक्रवाल को व्याप्त करके जो महान् वटवृक्ष देखा जाता है, वह अति सूक्ष्म उसी वटबीज की महिमा या यश है. सर्वथा विपरिणाम या परिपाक के बाद प्रत्येक JainEdLCom For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211367
Book TitlePurush Prajapati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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