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________________ श्रीवासुदेवशरण अग्रवाल काशी विश्वविद्यालय पुरुष प्रजापति भगवान् वेदव्यास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वचन है, जो उनके समस्त ज्ञान-विज्ञान का मथा हुआ मक्खन कहा जा सकता है. उन्होंने लिखा है: __ 'गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि न हि मानुषाच्छष्टतरं हि किञ्चित्'. जो गुह्य तत्त्वज्ञान है, जो अव्यक्त ब्रह्म के समान सर्वोपरि और सर्वव्याप्त अनुभव है, वह मैं तुम से कहता हूं-मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है. सचमुच अनन्त शाखा-प्रशाखाओं के वेद का गुह्य संदेश यही है कि प्रजापति की सृष्टि में मनुष्य प्रजापति के निकटतम है. शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट शब्दों में कहा है : पुरुषौ वै प्रजापतेनेदिष्ठम् - शत० ४. ३. ४. ३. पुरुष प्रजापति के निकटतम है. निकटतम का तात्पर्य यही कि वह प्रजापति की सच्ची प्रतिमा है, प्रजापति का तद्वत् रूप है. प्रजापति और उसके बीच में ही ऐसा सान्निध्य और घनिष्ठ सम्बन्ध है, जैसा प्रतिरूप अर्थात् असल रूप और अनुकृति में होता है. प्रजापति मूल है, तो पुरुष उसकी ठीक प्रतिकृति है, प्रजापति के रूप में देखना और समझना चाहें तो उसके सारे नक्शे को इस पुरुष में देख और समझ सकते हैं. सत्य तो यह है कि पुरुष प्रजापति के इतना नेदिष्ठ या निकटतम या अंतरंग है कि विचार करने पर यही अनुभव होता है और यही मुंह से निकल पड़ता है कि पुरुष प्रजापति ही है : पुरुषः प्रजापतिः-शत० ६. २. १.२३. जो प्रजापति के स्वरूप का ठाट या मानचित्र है, हूबहू वही पुरुष में आया है. इसलिए यदि सूत्र रूप में पुरुष के स्वरूप की परिभाषा बनाना चाहें, तो वैदिक शब्दों में कह सकते हैं : प्राजापत्यो वै पुरुषः-तैत्ति० २. १. ५. ३. किन्तु यहाँ एक प्रश्न होता है. पुरुष साढ़े तीन हाथ परिमाण के शरीर में सीमित है, जिसे बाद के कवियों ने : अहुठ हाथ तन सरवर, हिया कंवल तेहि मांह. इस रूप में कहा है, अर्थात् साढ़े तीन हाथ का शरीर एक सरोवर के समान है, जो जीवन रूपी जल से भरा हुआ है, और जिसमें हृदयरूपी कमल खिला हुआ है. जिस प्रकार कमल सूर्य के दर्शन से, सहस्ररश्मि सूर्य के आलोक से विकसित होता या खिलता है, उसी प्रकार पुरुष रूपी यह प्रजापति उस विश्वात्मा महाप्रजापति के आलोक से विकसित और अनुप्राणित है. प्रजापति आतप है. तो यह पुरुष उसकी छाया है. जब तक प्रजापति के साथ यह सम्बन्ध दृढ़ है, तभी तक पुरुष का जीवन है. प्रजापति के बल का ग्रंथिबन्धन ही पुरुष या मानव के हृदय की शक्ति है. जो समस्त विश्व में फैला हुआ है, विश्व जिसमें प्रतिष्ठित है और जो विश्व में ओतप्रोत है, उस महाप्रजापति को वैदिक भाषा में संकेत रूप से 'सहस्र' कहा जाता है. वह सहस्रात्मा प्रजापति ही वैदिक परिभाषा में 'वन' भी कहलाता है. उस अनन्तानन्त AAAA Jain Education ersona ainelibrary.org
SR No.211367
Book TitlePurush Prajapati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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