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________________ श्री आनन्द ग्रन्थ श्री आनन्द* ग्रन्था 32 १७८ इतिहास और संस्कृति स्थान प्रदेश, प्राचीनकाल से छोटी-बड़ी अनेक राजसत्ताओं का एक विशिष्ट केन्द्र रहा है। समूचे भारत के भूतकालीन इतिहास पर इस केन्द्र का बड़ा भारी प्रभाव रहा है। पिछली १५ शताब्दियों से इस केन्द्र ने भारत के गौरव, स्वातन्त्र्य, स्वधर्म और स्व जातीय संस्कृति की रक्षा में जैसा प्रबल योग दिया है और जो सर्वस्व त्याग किया है वह सर्वथा अनुपम और अद्भुत है । राजस्थान केन्द्र के उन भूतकालीन गौरवशाली राजवंशों की सन्तानों ने भी सद्भाव पूर्वक अपनी राजसत्ताएँ, भारत के एकात्मक जनतन्त्र को समर्पण कर भूतकालीन अपने पुण्य नाम पूर्वजों की ही तरह, नूतन भारत के पुनरुत्थान में, अपनी राष्ट्रभक्ति प्रदर्शित की है; और इस प्रकार अब यह विशाल राजस्थान नामक जनतन्त्रात्मक राज्य प्रदेश बनकर समग्र भारत का अविभाज्य एवं अनन्य रूप अंग बन गया है । 'राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर' इसी विशाल राजस्थान की पुरातत्त्व विषयक सब प्रकार की साधन सामग्री का अन्वेषण, अनुसन्धान, संग्रह, संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन आदि कार्य करने की दृष्टि से स्थापित हुआ है और विगत कई वर्षों से यह यथासाधन, एवं यथायोग्य कार्य उत्साह पूर्वक कर रहा है। मैंने ऊपर मुद्रित अहमदबाद वाले व्याख्यान में सन् १९२० से पूर्व, भारतीय पुरातत्त्व विषयक विकास क्रम के बारे में जो विशिष्ट बातें जानने जैसी थीं, उनका कुछ दिग्दर्शन किया है । उसके बाद पिछले ३०-४० वर्षों में जो कुछ नई बातें जानने जैसी हुई हैं उनका भी कुछ थोड़ा सा यहाँ उल्लेख कर दिया जाय तो उपयुक्त होगा, यह सोचकर मैंने यह अनुपूर्ति लिखने का प्रयत्न किया है । संसार के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने यह तो बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया था कि भारतीयों का प्राचीन साहित्य जो संस्कृत भाषा में उपलब्ध है, वह संसार का सबसे प्राचीन उपलब्ध वाङ् मय है; पर उसमें ग्रथित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों के आधार पर तथ्यपूर्ण इतिहास का संकलन करना सम्भव नहीं माना जाता । पुराणों में जो प्राचीन राजवंशों की वंशावलियाँ दी गई हैं उनके अनुसार तो भारत का प्राचीन इतिहास, बीसों हजार वर्ष पहले से प्रारम्भ होता है पर इतिहास के मुख्य आधारभूत जो अन्यान्य साधन जैसे शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पाषाण घटित मूर्ति, मृणमयपत्र आदि माने जाते हैं । उनके आधार से तो भारत के प्राचीन इतिहास का प्रारम्भ विक्रम या ईस्वी सन् के प्रारम्भ से पूर्व कोई १०००-१५०० वर्ष के अन्दर अन्दर ही अनुमानित किया जाता है । इससे अधिक प्राचीनकाल के निश्चायक कोई वैसे प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस अभिप्रायानुसार, सन् १९२० तक, पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में भारत की प्राचीन संस्कृति का उद्गम कोई ३०००-३५०० वर्ष से अधिक पुरातन नहीं माना जाता था । सन् १९२१ में, पश्चिमी पंजाब के मांटगोमरी जिले के हडप्पा नामक स्थान में पुराने टीले की खुदाई करते हुए, भारतीय पुरातत्त्वज्ञ दयाराम साहनी को जमीन में से कुछ ऐसे पुरातन अवशेष प्राप्त हुए, . जो पुरातत्त्ववेत्ताओं की परिभाषा के अनुसार 'कल्कों लिथिक' 'प्रस्तर - ताम्रयुग' समय के सूचक हैं । उसके दूसरे वर्ष (१९२२) में सिन्ध के मोहें-जो-दड़ो नामक स्थान में भी उसी प्रकार के अनेकानेक पुरातन अवशेष, प्रसिद्ध इतिहासज्ञ राखालदास बेनर्जी को मिले। इन विशिष्ट प्रकार के अवशेषों की विशेष प्रकार से, छानबीन करने पर और बलूचिस्तानादि में प्राप्त उनसे मिलते-जुलते वैसे ही अवशेषों का तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान करने से, पुराविदों का निश्चित मत बना कि भारत में प्राप्त प्रागति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211365
Book TitlePuratattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size3 MB
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