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२ - रस के पांच प्रकार हैं, वे ये हैं। १ - मधुर!
३ - कटु! २ - अम्ल!
४ - तिक्त! ५ - कषायला! ३ - गन्ध के दो प्रकार हैं।
१ - सुरभि गन्ध!
२ - दुरभि गन्ध! ४ - वर्ण के पाँच भेद इस प्रकार हैं। १ - कृष्ण!
३- पीत! २ - रक्त!
४ - श्वेत! ५ - नील!
"पुद्गल" द्रव्य की प्रमुख विशेषता उस के स्पर्श आदि चार गुण ही हैं, ये चारों उस के असाधारण भाव हैं! अर्थात उस के अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में संभव नहीं है। ऐसी विशेषताएँ मख्य रूप से छह कही जा सकती हैं। पुद्गल द्रव्य का जो स्वरूप है, उनका विश्लेषण करना ही इन विशेषताओं का एक मात्र उद्देश्य रहा है।
पुद्गलद्रव्य की परिभाषा हम पहले प्रस्तुत कर चुके हैं। और उसकी कसौटी पर पुद्गल द्रव्य खरा उतरता है। इसे स्पष्टतः समझाने के लिये हम एक उदाहरण देंगे। सुवर्ण पुद्गल है। किसी राजा के एक पुत्र है। और एक पुत्री है। राजा के पास एक सुवर्ण का घड़ा है। पुत्री उस घट को चाहती है। और पुत्र उसे तोड़ कर उस का मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र की हठ पूरी कर देता है। पुत्री रुष्ट हो जाती है। और पुत्र प्रसन्न हो जाता है। लेकिन राजा की दृष्टि केवल सुवर्ण पर है। जो घट के रूप में विद्यमान था और मुकुट के रूप में विद्यमान है, अतएव उसे न हर्ष है, न विषाद है। उस के मन में माध्यस्थ्य भाव है। १° एक उदाहरण और लीजिये। लकड़ी एक द्रव्य है और वह पुद्गल द्रव्य है। वह जल कर क्षार हो जाती है उस से लकड़ी रूप पर्याय का विनाश होता है और क्षार रूप पर्याय का उत्पाद है। किन्तु दोनों
में पदार्थ का अस्तित्व अचल रहता है. उसके आंगारत्व का विनाश नहीं होता ११ है। उक्त दोनों उदाहरणों में पदार्थ का अस्तित्व अक्षण्ण रहता है. वे द्रव्य के ध्रौव्य के प्रतीक हैं। संज्ञान्तर या भावान्तर को पर्याय कहते १२ हैं। पर्याय का स्वरूप ही चूंकि यह है कि वह प्रतिसमय बदलती रहती है। नष्ट भी होती है और उत्पन्न भी होती है। अतएव उत्पाद और विनाश इन दोनों की प्रतीक है, द्रव्य की इस परिभाषा की दृष्टि से, दोनों उदाहरणों के द्वारा पुद्गलास्तिकाय की द्रव्यता सिद्ध होती है।
१०. आप्त भीमांसा श्लोक-५९ आचार्य समन्तभद्र! ११- मीमांसाश्लोक वार्तिक, श्लोक- २१-२६! कुमारिल भट्ट! १२- तत्त्वार्थ भाष्य टीका अ.५ स्. ३७ आचार्य सिद्धसेन!
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