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“पुद्गल” शब्द एक पारिभाषिक शब्द है। लेकिन रूढ़ नहीं है । इस की व्युत्पन्ति कई प्रकार से की जाती है। पुद्गल शब्द में दो अवयव हैं । पुद् और गल! पुद् का अर्थ है - पुरा होना, या मिलना ! और गल का अर्थ है -गलना या मिटना ! जो द्रव्य प्रतिपल-प्रतिक्षण मिलता रहे, गलता रहे, बनता रहे, बिगड़ता रहे, टूटता रहे, जुड़ता रहे, वह “ पुद्गल” है। पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो खण्डित भी होता है । और पुनः परस्पर सम्बद्ध भी है। यही पुद्गलास्तिकाय नामक द्रव्य का स्वभाव है, पुद्गल द्रव्य का व्युत्पत्ति-जन्य अर्थ पूर्णतः यथार्थ है ।
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विराट् - विश्व में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है, जिस को छुआ जा सकता है, चखा जा सकता है, सूंघा जा सकता है और देखा जा सकता है। अतः अति स्पष्ट है कि जिस में वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श ये चारों अनिवार्यतः पाये जाते हैं। वह पुद्गल कहलाता है । इसी दृष्टि से “पुद्गल” द्रव्य को रूपी कहा जाता है । वैसे रूपी का अर्थ होता है -मूर्त! मूर्त वह है - जो चर्म चक्षुओं से दृश्यमान हो । मूर्त का उक्त अर्थ, संगत नहीं हैं, युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि पुद्गल परमाणु इतना सूक्ष्म होता है कि चर्म चक्षुओं से दृष्टि गोचर हो ही नहीं सकता। सूक्ष्य पुद्गल परमाणु तो बहुत दूर, अनन्त अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के भेल से बना व्यवहार परमाणु भी दृष्टिगोचर नहीं होता। ९ पुद्गल का अतिसूक्ष्य रूप " परमाणु ” है। पुद्गल की परिभाषा से सुस्पष्ट है कि यह द्रव्य रूपी है, मूर्तिमान् है । इस का स्वभाव ही हैं -सड़ना और गलना ! यह द्रव्य अपने स्वभाव से एक क्षण भी वियुक्त नहीं हो सकता । और इस की यही पहिचान है, और यह अपने स्वभाव में ही परिणमन करता रहता है।
जैसा कि उक्त परिभाषा से अति स्पष्ट है कि पुद्गल के मूलतः चार गुण होते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध और स्पर्श, इन चारों के भी बीस भेद होते हैं, यह वर्गीकरण अत्यन्त स्थूल रूप में किया गया है। वास्तव ये गुण अपने विभिन्न रूपों में गणनातीत है, अगणित हैं। वे समस्त गुण वस्तुतः आदिमान परिणाम
हैं।
१ - स्पर्श के आठ भेद हैं, उन को नाम इस प्रकार हैं।
१ - स्निग्ध !
शीत!
२
रुक्ष !
उष्ण !
लघु !
३ - मृदु ! ४ - कठोर !
८ - गुरु !
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क- भगवती सूत्र- श. १० उद्ध - १० ! ख- तत्त्वार्थ सूत्र - अ. ५ स् ४!
अनुयोग द्वार सूत्र- सूत्र - ३३० - ३४६ !
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२४ ! आचार्य अलंकदेव
क- तत्त्वार्थ राजकार्तिक, अ.५ सू. १ वां ख - हरिवंश पुराण सर्ग ७ श्लोक - ३६ ! आचार्य जिनसेने
ग - तत्वार्थ भाष्ट टीका - अ. ५ सू. १ गणी सिद्धसेन
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घ - न्यायकोष पृ. ५०२ !
क - भगवती सूत्र - श. १२, उद्दे. ५ सूत्र - ४५०
ख - तत्वार्थ सूत्र अ. ५. सू. २३
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