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________________ ५७८ श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड लेमन ३५. ३६. ४०. ४१. ४२. ४८. विधाओं पर पाश्चात्य । ३३. दसवेयालियसुत्त १९३२ ३४. हरिवंशपुराण एवं महापुराण आल्सडोर्फ १६३५ सूर्यप्रज्ञप्ति कोल १९३७ जम्बूदीपप्रज्ञप्ति डब्लू किफेल १९३७ प्राकृत कल्पतरु नित्ति डोलची १९३६ न्यायावतारसूत्र कनकुरा १९४४ महानिशीथ १९४८ मल्ली की कथा गुस्तेव १९५२ चौपन्न महापुरिसचरियं कलास १९५५ महानिशीथ शुकिंग १९६३ आयारदशाओ शुब्रिग १९६६ ४५. प्रवचनसार ए. ऊनो १९६६ उत्तराध्ययन आल्सडोर्फ १९५४-६६ ओषनियुक्ति ए. मेटे १९६८ मूलाचार ३९ आल्सडोर्फ १९६८ भगवती मूलाराधना आल्सडोर्फ १९६८ ५०. अनुयोगद्वारसूत्र अनुवागवान टी. हनाकी १९७० विभिन्न विषय जैन साहित्य के इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त जैन-दर्शन की अन्य विधाओं पर पाश्चात्य विद्वानों ने लिखा है । उन्होंने जैन ग्रन्थों का सम्पादन ही नहीं किया, अपितु उनके फ्रेंच एवं जर्मन भाषाओं में अनुवाद भी किये हैं। लायमन ने पादलिप्तसूरि की तरंगवती कथा का सुन्दर अनुवाद दाइनोन (Die Nonne-The Nun) के नाम से प्रकाशित किया है । इस दृष्टि से चार्लट कोसे का इंडियन नावेल (Indisch Novellen) महत्त्वपूर्ण कार्य है।" जैनाचार्यों की जीवनी-साहित्य की दृष्टि से हर्मन जैकोबी का 'अवर डास लेवन डेस जैन मोन्स हेमचन्द्र' नामक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। जैन इतिहास और पुरातत्त्व के महत्त्वपूर्ण अवशेषों के सम्बन्ध में भी पाश्चात्य विद्वानों ने अध्ययन प्रस्तुत किया है । डी० मेनट ने गिरनार के जैन मन्दिरों पर लिखा है । जोरलडुबरल ने दक्षिण भारत के पुरातत्त्व पर विचार करते हुए जन पुरातत्त्व के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। एक म्यूरिनट ने जैन अभिलेखों के ऐतिहासिक महत्त्व पर प्रकाश डाला है।" प्यूरिनट का विशेष योगदान जैन ग्रन्थ सूची के निर्माण करने में भी है। उन्होंने ८५२ जैन ग्रन्थ का परिचय अपने 'एसे आन जैन बिब्लियोग्राफी' नामक निबन्ध में दिया है। इसके बाद 'नोटस आन जैन बिब्लियोग्राफी' तथा 'सम कलेक्शन्स आफ जैन बुक्स' जैसे निबन्ध भी उन्होंने जैन ग्रन्थ सूची के निर्माण के सम्बन्ध में लिखे हैं।२ इनके पूर्व भी १८९७ ई० में अर्नेस्ट ल्यूमन ने २०० हस्तलिखित दिगम्बर जैन ग्रन्थों का परिचय अपने एक लेख में दिया है।" जैन साहित्य के ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले पाश्चात्य विद्वानों में विन्तरनित्स का स्थान उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने 'हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में लगभग १५० पृष्ठों में जैन साहित्य का विवरण दिया है । उस समय उन्हें उतने ही जैन ग्रन्थ उपलब्ध थे। इस विवरण में विन्टरनित्स ने जैन कथाओं का भारत की अन्य कथाओं एवं विदेशी कथाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। विदेशों में जनविद्या के अध्ययन केन्द्र ____ लगभग दो सौ वर्षों तक पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जनविद्या पर किया गया अध्ययन भारत एवं विदेशों में जैनविद्या के प्रचार-प्रसार में पर्याप्त उपयोगी रहा है । इन विद्वानों के कार्यों एवं लगन को देखकर भारतीय विद्वान् भी जैनविद्या के अध्ययन में जुटे । परिणामस्वरूप न केवल प्राकृत-अपभ्रश साहित्य के सैकड़ों अन्य प्रकाश में आये, अपितु भारतीय विद्या के अध्ययन के लिए जनविद्या के अध्ययन की अनिवार्यता अब अनुभव की जाने लगी है। डा०पी० एल० वैद्या, डा० एच० डी० बेलणकर, डा० एच० एल० जैन, डा० ए० एन० उपाध्ये, डा० जी० बी० सगारे, मुनिपुण्य तसूरि की तरंगवती कथा का किया, अपितु उनके फच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211353
Book TitlePashchtya Vidwano ka Jain Vidya ko Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size956 KB
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