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अर्चनार्चन
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पातंजल योग और जैन योग : एक तुलनात्मक विवेचन
[ डॉ. लालचन्द्र जैन
भारतीय दर्शन एक प्राध्यात्मिक दर्शन है । यहाँ के चिन्तकों और मनीषियों के जीवन का परम लक्ष्य सुख प्राप्त करना रहा है। सुख से तात्पर्य इन्द्रिय-सुख से नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-सुख वास्तव में सुख नहीं है। वह तो पराधीन, क्षणभंगुर श्रौर बन्ध का कारण होने से दुःख रूप ही है ।' उन्होंने ऐसे सुख को प्राप्त करना चाहा है जो श्रात्म-जन्य, अनन्त और अविनाशी हो। इस सुख की प्राप्ति का अर्थ है - मोक्ष की प्राप्ति । यही कारण है कि भारतीय विचारकों ने चार पुरुषार्थों में मोक्ष को ही महान् और उपादेय बतलाया है । मोक्ष की प्राप्ति योग से हो सकती है, भोग से नहीं । यह योग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान श्रीर सम्यक्चारित्र रूप है ।
योगसाधना अत्यन्त प्राचीन और अनादि है । इसे किसी न किसी रूप में प्रायः भारतीय दर्शन की सभी परम्पराओं ने स्वीकार किया है। यह सत्य है कि विभिन्न दर्शनों में योग का लक्ष्य एक नहीं प्रतीत होता है । किसी ने योग का श्रध्यास ऋद्धि-सिद्धियों, (अलौकिक ) शक्तियों को प्राप्त करने आदि के लिए माना है तो अन्य ने सांसारिक बन्धनों को तोड़ने के लिए |
योग के पुरस्कर्ता - जिस योग को श्राचार्यों ४ ने कल्पतरु, उत्तम चिन्तामणि एवं समस्त धर्मों में प्रधान धर्म कहा है और जिस योग से जन्म रूपी बीज नष्ट हो जाता है, कर्म
१. सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं सविसयं ।
जं इंदियेहि लद्धं तं सौक्खं दुक्खमेव तधा ॥ - प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, १७६ २. प्रइसममादसमुत्थं विसयातीदं श्रण विममणतं । बुच्छिणं व सुहं सुद्धवयोगप्पसिद्धाणं || ३. हेमचन्द्र, योगशास्त्र १।१५
वही, ज्ञा१३
४. ( क ) प्रा० हरिभद्र, योगबिन्दु, श्लोक ३६-६७ । (ख) हेमचन्द्र, योगदर्शन योगशास्त्र, १०५ - १४ ५. योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणि परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धेः स्वयंग्रहः ||
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- योगबिन्दु, पद्य – ३
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