________________ को जैन ज्योतिष की दृष्टि से तथा अन्य किसी भी दृष्टि से वर्ष का न अन्तिम दिन है और न प्रारम्भिक दिन। इसका समाधान यह है कि यद्यपि आषाढ़ पूर्णिमा संवत्सर का अन्तिम दिन माना गया है, किन्तु शास्त्र में जो पर्युषण का विधान है वह आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन के भीतर किसी पर्व तिथि अर्थात् पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि में मनाने का है। निर्दोष स्थान आदि की प्राप्ति न हो तो भी आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस दिन बीत जाने पर तो अवश्य ही मनाना होता है। इस दृष्टि से देखें तो आषाढ पर्णिमा से पचासवाँ दिन एक निश्चित दिन है, इस दिन पर्यषण निश्चित रूप से करना ही होता है। इस दिन का उल्लङ्घन करने पर प्रायश्चित्त आता है, अर्थात् अन्य सभी विकल्प के दिनों को पार कर लेने के बाद पचासवाँ दिन निर्विकल्पक दिन है, अतः इस दिन का सबसे अधिक महत्त्व है। यह सीमा का वह अन्तिम पत्थर है जिसका उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता। आचार्यों ने इसी दिन को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का दिन स्वीकार कर दूरदर्शिता का परिचय दिया है, साथ ही समस्त श्रमण संघ को एकसूत्र में बाँधे रखने का भी एक सुन्दर मार्ग दिखाया है। बीच के दिन तो अपनी-अपनी सुविधा के दिन हो सकते हैं, जिस दिन जहाँ पर जिसको स्थान आदि की सुविधा मिले वह उसी पर्व तिथि (पञ्चमी-दशमी-पूर्णिमा आदि) को पर्युषण कर ले तो इससे सङ्घ में बहुरूपता आ जाती है, विभिन्नता आती है, फिर मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना वाली स्थिति आ सकती है, इसलिए भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवें दिन पर्युषण करने अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का निश्चित विधान है, जो सङ्घ की एकता और श्रमण सङ्घ की अनुशासनबद्धता के लिए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है'।16 सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि का विचार यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो आज साधु-साध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते है और जब अपवाद का कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये? दूसरे भाद्रपद शुक्ल पक्ष में पर्युषण/संवत्सरी करने से जो अप्काय और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केशलोच का विधान था उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है। वर्षा में बालों के भीगने से अप्काय की विराधना और त्रस जीवों के उत्पत्ति की सम्भावना रहती है। अतः उत्सर्ग मार्ग के रूप आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है, इसमें आगम से कोई विरोध भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल हो जाता है। यदि अपवाद मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद मार्ग के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस दिन को स्थानकवासी और तेरापंथी समाज तो मानता ही है, मूर्तिपूजक समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की व्यवस्था अपवादिक व्यवस्था थी और एक नगर विशेष की परिस्थिति विशेष 16 पर्युषण पर्व प्रवचन, संपा0 - श्रीचन्द सुराना, प्रका0 - मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, 1976, पृ. 37-381 Page | 12