________________ इससे पर्व का भी मुख्य दिन यही प्रतीत होता है। 'क्षमाधर्म' आराधना का दिन होने से भी यह श्वेताम्बर परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूल भावना के अधिक निकट बैठता है। आशा है दिगम्बर परम्परा के विद्वान् इस पर अधिक प्रकाश डालेंगे। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी पर्युषण का उत्सर्गकाल आषाढ़ पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ल पञ्चमी माना जा सकता है। समन्वय कैसे करें? उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरी) पर्व की अपर सीमा है और भाद्र शुक्ल पञ्चमी अपवाद सीमा है। इस प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व तिथि में किया जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास की स्थापना कर लेनी चाहिये, यह उत्सर्ग मार्ग है। यह भी स्पष्ट है कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद मार्ग का सेवन करना भी उचित नहीं है। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु साध्वियों के निमित्त बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं था। पुनः साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास प्राप्ति सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अतः अपवाद के सेवन की सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक साधु-साध्वी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से भाद्र शुक्ल पञ्चमी तक कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं ने महोत्सव के रूप में पर्व मनाना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि आरम्भ कर दिया था, किन्तु तब भी कुछ कठोर आचारवान साधु थे, जो इसे आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर चूर्णिकार ने कहा था - यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मख पर्यषण कल्प का वाचन नहीं करना चाहिए. किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासी-शिथिलाचारी साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी प्रभावशाली आचार्य ने अपवादकाल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ल चतुर्थी/पञ्चमी को पर्युषण (संवत्सरी) मनाने का आदेश दिया हो। युवाचार्य मिश्रीमलजी म. ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे लिखते है कि 'सामान्यतः संवत्सर का अर्थ है- वर्ष। वर्ष के अन्तिम दिन किया जाने वाला कृत्य सांवत्सरिक कहलाता है। वैसे जैन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होता है, और श्रावण प्रतिपदा (श्रावण वदी 1) को नया संवत्सर प्रारम्भ होता है। इसलिए कुछ व्यक्ति यह तर्क उठाते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा को ही करना चाहिए। यही वर्ष का अन्तिम दिन है। भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी Page | 11