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सकते हैं। इसी स्वभाव रूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर ने कहा है
या चादर को सुर नर मुनि ओढ़ी ओढ़ के मैली कोनी |
दास कबीर जतन कर ओढ़ी ।
ज्यों की त्यों घर दीनी ॥
जतन की चादर
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विश्व के चेतन, अचेतन सभी पदार्थों के आवरण से देवता, मनुष्य, ज्ञानीजन सभी व्याप्त रहते हैं पर्यावरण की चादर उन्हें ढके रहती है, किन्तु अज्ञानी जन अपने स्वभाव को न जानने वाले अधार्मिक उस प्रकृति की चादर को मैली कर देते हैं। अपने स्वार्थी की पूर्ति के लिए पर्यावरण को दूषित कर देते हैं । किन्तु कबीर जैसे स्वभाव को जानने वाले धार्मिक संसार के सभी पदार्थों के साथ जतन ( यत्नपूर्वक ) का व्यवहार करते हैं। न अपने स्वभाव को बदलने देते हैं औन न ही पर्यावरण और प्रकृति के स्वभाव में हस्तक्षेप करते हैं। प्रकृति के सन्तुलन को ज्यों का त्यों बनाये रखना ही परमात्मा की प्राप्ति है। तभी साधक कह सकता है- "ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया |" अपने स्वभाव में लीन होना ही स्वस्थ होना है जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तब प्राणियों का जीवन स्वस्थ होगा। स्वस्थ जीवन ही धर्म साधना का आधार है । अत: स्वभावरूपी धर्म पर्यावरणशोधन का मूलभूत उपाय है। साधक है तो आत्म-साक्षात्कार रूपी धर्म विशुद्ध पर्यावरण का साध्य है, उद्देश्य है कबीर ने जिसे "जतन" कहा है, जैनदर्शन के चिन्तकों ने हजारों वर्ष पूर्व उसे यत्नाचार धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका उद्घोष था कि संसार में चारों ओर इतने प्राणी, जीवन्त प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय उनके घात प्रतिघात से बच नहीं सकता। किन्तु यह प्रयत्न ( जतन) तो कर सकता है कि उसके जीवनयापन के कार्यों से कम से कम प्राणियों का घात हो । उसकी इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को जीवनदान मिल जाता है। प्रकृति का अधिकांश भाग जीवन्त बना रह सकता है। आचार्य ने कहा है
जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जय सये । जय भुँजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई || "व्यक्ति यत्न- पूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार के जीवन से यह पाप कर्म को नहीं बाँधता है।"
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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चलने, ठहरने, बैठने और सोने की क्रियाओं का धरती के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन क्रियाओं को यदि विवेकपूर्वक और आवश्यकता के अनुसार सीमित नहीं किया जाता तो सारे संसार की हिंसा इनमें समा जाती है। दो गज जमीन की आवश्यकता के लिए पूरा विश्व ही छोटा पड़ने लगता है। ये क्रियाएं फिर हमारी आंखों के दायरे से बाहर होती हैं अतः उनके लिए की गयी हिंसा, बेईमानी और शोषण हमें दीखता नहीं हैं, या हम उसे नजर अंदाज कर देते हैं। अपना पाप दूसरे पर लाद देते हैं। इससे पर्यावरण के सभी घटक दूषित हो जाते हैं। धरती की सारी खनिज सम्पदा हमारे ठहरने और सोने के सुख के लिए बलि चढ़ जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण क्रिया भोजन की है। आचार्य कहते हैं, यत्नपूर्वक भोजन करो। इस सूत्र में अल्प भोजन, शुद्ध भोजन, शाकाहार आदि सभी के गुण समाये हुए हैं। भोजन प्राप्ति में जब तक अपना स्वयं का श्रम एवं साधन की शुद्धता सम्मिलित न हो तब तक वह यत्नपूर्वक भोजन करना नहीं कहलाता है। व्यक्ति यदि इतनी सावधानी अपने भोजन में कर ले तो अतिभोजन और कुभोजन की समस्या समाप्त हो सकती है। पौष्टिक, शाकाहारी भोजन का व्यापक प्रचार यत्नपूर्वक भोजन दृष्टि से ही किया जा सकता है। इससे कई प्रकार के स्वास्थ्य प्रदूषणों को रोका जा सकता है यत्नपूर्वक वचन प्रयोग करने की नीति जहाँ व्यक्ति को हितमित और प्रिय बोलने के लिए प्रेरित करती है, वहीं इससे ध्वनि प्रदूषण को रोकने में भी मदद मिल सकती है। मनोभाव एवं मानसिक प्रदूषण से वर्तमान मानव सभ्यता एवं प्रकृति व्यापक एवं गहन रूप से प्रभावित हुई है। मानव जीवन की सरलता, सज्जनता, निष्कपटता, निश्छलता, परदुःखकातरता, स्वावलंबन, कर्तव्यनिष्ठा, श्रमनिष्ठा, परस्परसहयोग, प्राणि मात्र के प्रति दया एवं करुणा आदि ऐसे सहज मानवीय गुण हैं जो मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठता प्रदान करते हैं और जिसके संतुलन से प्रकृति-व्यवस्था संतुलित एवं मर्यादित चलती रहती है किन्तु जब इन मानवीय गुणों का ह्रास होता है या इन गुणों का प्रतिपक्षी मनोभाव मानव जीवन को आक्रान्त करते हैं तब उससे न केवल व्यक्ति किन्तु समाज भी दुःखी होता है। इससे प्राकृतिक संतुलन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है जैसा कि वर्तमान में मनोविकृत सामाजिक अव्यवस्था एवं प्राकृतिक असंतुलन के दुष्परिणामों को हम अनुभूत कर रहे हैं। वस्तुतः इन सब विकृतियों के लिये मानव जगत का मानसिक प्रदूषण ही उत्तरदायी है।
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विद्वत् खण्ड / ७१
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