Book Title: Paryavaran Samrakshan aur Jain Dharm
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ • डॉ० प्रेमसुमन जैन पर्यावरण संरक्षण और जैन धर्म पर्यावरण के साथ धर्म के सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए धर्म के उस वास्तविक स्वरूप को जानना होगा जो प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। वैदिक युग के साहित्य से ज्ञात होता है कि धर्म का जन्म प्रकृति से ही हुआ है। प्राकृतिक शक्तियों को अपने से श्रेष्ठ मानकर मानव ने उन्हें श्रद्धा, उपहार एवं पूजा देना प्रारम्भ किया। वहीं से वह आत्म-शक्ति को पहिचानने के प्रयत्न में लगा । प्रकृति, शरीर, आत्मा एवं परमात्मा इस क्रमिक ज्ञान से धर्म का स्वरूप विकसित हुआ। भारतीय परम्परा में धर्म जीवन-यापन की एक प्रणाली है, केवल बौद्धिक विलास नहीं है। अतः जीवन का धारक होना धर्म की पहली कसौटी है। चूँकि जीवन एवं प्राण सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी में भी विद्यमान है। अत: उन सबकी रक्षा करने वाली जो प्रवृत्ति है, वही धर्म है। महाभारत के कर्णपर्व में कहा गया है कि समस्त प्रजा का जिससे संरक्षण हो, वह धर्म है। यह प्रजा पूरे विश्व में प्याप्त है। अतः विश्व को जो धारणा करता है, उसके अस्तित्व को सुरक्षित करने में सहायक है, वह धर्म " धरति विश्वं इति धर्म:" महाभारत की यह उक्ति बड़ी सार्थक है। महर्षि कणाद ने धर्म के विधायक स्वरूप को विद्वत् खण्ड / ६८ — Jain Education International स्पष्ट करते हुए कहा है कि धर्म उन्नति और उत्कर्ष को प्रदान करने वाला है "यतोअभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्म : " । उन्नति और उत्कर्ष का मार्ग स्पष्ट करते हुए धर्म के अन्तर्गत श्रद्धा, मैत्री, दया, सन्तोष, सत्य, क्षमा आदि सद्गुणों के विकास को भी सम्मिलित किया गया है। समग्र दृष्टि से देखें तो पर्यावरण का तात्पर्य यहीं है। पर्यावरण या समग्र प्रकृति एक-दूसरे का पर्याय है। केवल नदी, जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी और हवा ही पर्यावरण नहीं है। हमारे सामाजिक-आर्थिक सरोकार और हमारी सांस्कृतिक-राजनीतिक, सम-सामयिक परिस्थितियाँ भी पर्यावरण के ही फलक हैं। बेशक प्राकृतिक पर्यावरण इन सभी फलकों को सर्वाधिक प्रभावित करता है, क्योंकि विकास की धुरी में प्राकृतिक संसाधनों का ही प्रमुख स्थान है। संतुलित पर्यावरण का अर्थ जीवन और जगत् को पोषण देना है। इस धरती पर जो कुछ दृश्यमान या विद्यमान है, वह पोषित हो, पुष्ट हो - यही पर्यावरण का अभीष्ट है। और यह दायित्व चेतनाशील मनुष्य का है। पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे मनुष्य से कम चेतनाशील हैं ? यदि मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए उनका विनाश करता है, तो हम न तो उसे चेतनाशील कह सकते हैं, न विवेकशील । इस असंगति ने हमारे सम्पूर्ण जीवन क्रम को काली छाया से ग्रस लिया है। हमारे जीवन-क्रम में सदा एक सुसंगति समात्मता और समादर रहा है, जो आज विकास के नाम पर पैरों तेल रौंदा जा रहा है, जिससे विद्वेष- घृणा पनपने लगी है। हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण पर आसुरी वृत्तियों का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह दशा यंत्र और विज्ञान के उपजे लोभ के फल-स्वरूप है। सही अर्थों से सोचा जाए तो यंत्र और विज्ञान लोभ के साधन नहीं होने चाहिए, पर ऐसा है कहाँ ? डॉ० राधाकृष्णन कहते हैं- यदि हम एक-दूसरे के प्रति दयालु नहीं हैं और यदि पृथ्वी पर शान्ति स्थापित करने के हमारे सब प्रयत्न असफल रहे हैं, तो उसका कारण यह है कि मनुष्यों के मनों और हृदयों में दुष्टता, स्वार्थ और द्वेष से भरी अनेक रुकावटें हैं, जिनका हमारी जीवन प्रणाली कोई रोकथाम नहीं कर पाती। यदि हम आज जीवन द्वारा तिरस्कृत हैं, तो इसका कारण कोई दुष्ट भाग्य नहीं है । जीवन के भौतिक उपकरणों को पूर्ण कर लेने में हमारी सफलता For Private & Personal Use Only शिक्षा - एक यशस्वी दशक www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6