________________ जायेगा, मिट जायेगा, खो जायेगा, और भी कारण है जिससे उन्होंने समय को आत्मा कहा। विस्तारभय से इस समय उनकी चर्चा नहीं करूंगा। तो, इस प्रकार समय को आत्मा कहा गया। महावीर द्वारा प्रदत्त सामायिक-साधना अन्य ध्यान-साधनाओं की अपेक्षा कुछ अपनी-सी विशिष्टता रखती है। जो विज्ञान के काफी निकट है। इसके साथ ही यह शब्द सामायिक उनकी साधना पद्धति का सर्वथा केन्द्रीय शब्द भी है। महावीर द्वारा प्रदत्त समस्त / साधनागत प्रक्रियाएं सामायिक तक पहुंचाने का साधन प्रतीत होती हैं। सामायिक को उन्होंने दो हिस्सों, कहें दो चरणों में रखा। पहला है प्रतिक्रमण (जिसके बारे में निवेदन किया जा चुका है) अर्थात् जहां-जहां भी हमारी चेतना जिस-जिससे भी सम्बद्ध है, वहां-वहां से उसे असम्बद्ध कर लेना / चाहे वे जड़ पदार्थ हो या सचेतन। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, उसे लौटा लेना है, सब तरफ से काटते हुए सिमटाते हुए वापस खींच लेना है। यह प्रथम हिस्सा यानी प्रतिक्रमण हुआ। किन्तु महावीर की दृष्टि हर मामले में बड़ी ही गहरी है। उन्हें इस बात का पूरा पूरा ज्ञान है कि प्रतिक्रमण केवल एक प्रक्रिया है। स्वभाव नहीं है। अत: वही लौटी हुई चेतना जितनी शीघ्रता से सब ओर से खिंचकर लौटती है। तो अगर उसे कोई ठौर-ठिकाना न मिले तो वापस वही-की वहीं फिर चली जाती है। इसलिए उन्होंने उसके आगे का बहुत कीमती सूत्र दिया कि जब चेतना लौट आये तो फिर इससे आगे की बात यानी दूसरा चरण प्रारम्भ होता है कि अब उसे 'स्व' में, अपने केन्द्र यानी आत्मा (लक्ष्य) में स्थिर किया जाना चाहिए, रमा लिया जाना जाहिए। क्योंकि यदि वह आत्मा पर न रुकी, न ठहरी, तो फिर किसी न किसी 'पर' से जाकर सम्बन्धित हो जायेगी। इस दूसरे चरण का नाम ही उन्होंने दिया है—सामायिक / इन दोनों चरणों को पूरा करने से जो क्रिया सम्पन्न होती है महावीर ने उसे सम्यक् ध्यान कहकर इंगित किया है। तो सामायिक का अर्थ इस प्रकार हुआ आत्मा में स्थिर हो जाना / अब इस शब्द सामायिक से कुछ ऐसा ध्वनित होता महसूस नहीं होता कि किसकी सामायिक ? बड़ी सुन्दरता और बड़े वैज्ञानिक ढंग से उन्होंने बात पूरी कर दी / उनका लाया गया यह शब्द और इसके पीछे दी हुई प्रक्रिया साधना-जगत् की तमाम भाषाओं में सबसे अधिक वैज्ञानिक और अद्भुत शब्द है, वह बेजोड़ है।। महावीर द्वारा प्रदत्त दर्शन-दृष्टि के अन्तर्गत उनका स्यात् तो अनेकान्त-दर्शन और साधना के अन्तर्गत जाति स्मरण, वीतरागता, श्रावक, कला तथा सामायिक। ये पांचों बातें मुझे सबसे अधिक अपील करती हैं और उनकी अद्भुत वैज्ञानिक दृष्टि का बड़ा गहरा परिचय देती हैं। इसीलिए मैंने इनकी ओर संकेत करने का यह छोटा-सा प्रयास भर किया है / इसके अतिरिक्त भी महावीर की बहुतेरी बातें ऐसी हैं जो भले ही उनके युग में कीमती न भी समझी गयी हों किन्तु आज जब विज्ञान-मनोविज्ञान के इतने विकसित युग में उन्हें देखनेपरखने का प्रयास किया जाता है तब उनके सही मर्म की जानकारी मिलती है कि अध्यात्म-विज्ञान में महावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व ही इतनी वैज्ञानिक दृष्टि का बोध पा चुके थे, दे भी चुके थे, जो विज्ञान फिलहाल प्राप्त नहीं कर पाया है / लेकिन भावी विज्ञान महावीर को और भी अधिक स्वीकृति देगा इसमें अब सशंय की संभावना नहीं रह गयी है। जैनधर्म और विज्ञान आजकल दुनिया में विज्ञान का नाम बहुत सुना जाता है / इसने ही धर्म के नाम पर प्रचलित बहुत से ढोंगों की कलई खोली है, इसी कारण अनेक धर्म यह घोषणा करते हैं कि धर्म और विज्ञान में जबरदस्त विरोध है / जैन धर्म तो सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान् का बताया हुआ वस्तुस्वभाव रूप है। इसलिए यह वैज्ञानिकों की खोजों का स्वागत करता है। भारत के बहुत से दार्शनिक 'शब्द' को आकाश का गुण बताते थे और उसे अमूत्तिक बताकर अनेक युक्तियों का जाल फैलाया करते थे, किन्तु जैन धर्माचार्यों ने शब्द को जड़ तथा मूत्तिमान बताया था। आज विज्ञान ने ग्रामोफोन रेडियो आदि ध्वनि सम्बन्धी यंत्रों के आधार पर 'शब्द' को जैन धर्म के अनुसार प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया है। आज हजारों मील दूर से शब्दों को हमारे पास तक पहुंचाने में माध्यम रूप से 'ईथर' नाम के अदृश्य तत्त्व की वैज्ञानिकों को कल्पना करनी पड़ी, किन्तु जैनाचार्यों ने हजारों वर्ष पहले ही लोकव्यापी 'महास्कन्ध' नामक पदार्थ के अस्तित्व को बताया है। इसकी सहायता से भगवान् जिनेन्द्र के जन्मादि की वार्ता क्षण भर में समस्त जगत् में फैल जाती थी। प्रतीत तो ऐसा भी होता है कि नेत्रकम्प, बाहुस्पन्दन, आदि के द्वारा इष्ट अनिष्ट घटनाओं के सन्देश स्वतः पहुंचाने में यही 'महास्कन्ध' सहायता प्रदान करता है। --आचार्य श्री देशंभूषण, भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन, दिल्ली 1973, पृ० 38-39 से उद्धृत 86 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org