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कवि पद्मानन्दका वैराग्य-शतक
डा० प्रभुदयालु अग्निहोत्री, भोपाल, म० प्र० पद्मानन्द श्रेष्ठ जैन कवि थे । उनका वैराग्यशतक सुप्रसिद्ध न होते हुए भी संस्कृतके मुक्तक शतककाव्योंकी परम्परामें उत्कृष्ट स्थान रखता है।
प्राचीन वैदिक लोगोंका लगाव सप्त और शत इन दो संख्याओंकी ओर अधिक था। संहिताओंमें सप्तच्छन्दोसि, सप्तर्षयः, सप्तरश्मि, सप्तहोतारः, सप्त परिधि जैसे बहुतसे सप्तपूर्व पदवाले नामोंके साथ शतक्रतु, शतकाण्ड, शतपथ और शतशारद जैसे ढेरसे शतपूर्वक संज्ञा-शब्द प्राप्त होते हैं । ऐसा लगता है कि ये संख्यायें साहित्यमें समादत हो गयी थीं और समाजमें भी उनको विशेषता दी जाती थी। विवाहकी सप्तपदी, मैत्रीकी सप्तपदीनता, लोकोंकी सप्त संख्या, धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंकी कल्पना, 'शतं वद मालिख' जैसी कहावतें ये सब इसी बातकी पोषक हैं। आधनिक हिन्दी भाषा तकमें यह बात कहावतोके रूप सकती है। इसीलिये भगवद्गीता, दुर्गासप्तशती, गाहासत्तसई और आर्यासप्तशतीमें यदि इन दोनों संख्याओं का समुच्चय मिलता है तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। इनके अनुकरण पर हिन्दीमें बिहारी सतसई और मतिराम सतसई जैसी उत्तम कृतियां प्रकाशमें आयों। सप्त और शतके बाद यदि कोई अन्य संख्या अधिक लोकप्रिय थी तो वह थी त्रि (तीन)। वैदिक संहिताओंमें ही नहीं, धर्म और दर्शनके क्षेत्रमें भी यह संख्या बहुत प्रिय हुई । साहित्यकी त्रिशतियाँ इसीका परिणाम हैं । भर्तृहरिकी शतकत्रयी, पण्डितराजकी विलासत्रयी (भामिनी-विलास) आदि इसके उदाहरण हैं ।
काव्यके क्षेत्र में शतकोंका प्रारम्भ अमरुशतकके साथ हुआ। बादमें तो शृंगार-शतकोंकी परम्परा ही चल निकली। बहतसे दूत-काव्य भी वस्ततः शतक काव्य ही है। इस पद्धतिकी रचनाओं में कसम दृष्टांत-कलिका-शतक; कामराज दीक्षितकी शृंगारकलि का त्रिशती, मक कविके शतक-पंचक; वीरेश्वरका अन्योक्तिशतक; नरहरि, जनार्दन भट्ट, धनराज एवं रुद्रभटटादिके श्रृंगार-शतकोंके अतिरिक्त स्तोत्र, भाव, नीति, उपदेश, अन्योक्ति और काव्यभूषण जैसे विषयों पर दर्जनों मुक्तक शतक काव्य मिलते हैं, यहाँ तक कि खड्ग-शतक भी।
शतक काव्योंकी परम्परामें वैराग्य-शतकोंका विशिष्ट स्थान है। अप्पय दीक्षित, धनद एवं जनार्दन भट्ट जैसे अनेक कवियोंने वैराग्य-शतककी रचना की। यों तो सोमप्रभाचार्यकी सूक्तिमुक्तावली, जम्बूगुरुका जिनशतक, गुमानी कविका उपदेशशतक आदि भी इसी कोटिकी रचनायें हैं। फिर भी वैराग्यशतक नामसे जो संस्कृत काव्य उपलब्ध होते हैं उनमें पद्यानन्दका वैराग्यशतक शद्ध साहित्यिक दष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण रचना है। वैराग्यपरक काव्योंमें जैन कवियोंकी देनका यों भी विशिष्ट स्थान है। वैदिक-पौराणिक परम्पराके कवि प्रायः नीति, श्रृंगार और वैराग्यकी त्रयीको साथ लेकर चले हैं। उनकी दृष्टि में कुमार, युवा और जरठ वयके लिये पथक रुचिके काव्यकी ओवश्यकता थी। ये कवि गहस्थ थे और जैसा कि वैदिक परम्परामें रहा है, गृहस्थाश्रमको जीवनका केन्द्र-बिन्दु मानकर चले हैं। इसलिये वैराग्य-काव्य लिखते हुए भी वे नीति और शृंगारमें अधिक डूबते दिखायी देते हैं । भर्तृहरि इसके अपवाद हैं। इन कवियोंने वैराग्यपरक रचनायें प्रायः अन्तिम वय में की जो वैराग्यपरक कम और भक्तिपरक अधिक हैं। जैन कवियोंका पथ इससे भिन्न रहा
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