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________________ ६२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ व्याप्ति । अत गुण वाला द्रव्य ध्रौव्यवान सिद्ध होता है । यहाँ गुण लक्ष्य है और धौव्य लक्षण है इसलिए दोनों लक्षण वाला साध्य साधन भाव है । उत्पाद व्यय पर्यायें हैं और द्रव्य पर्याय वाला है । याने द्रव्य उत्पाद व्यय पर्याय वाला है । द्रव्यके ये दोनों लक्षणों में से किसी एकके काम चल सकता है इस प्रश्नका समाधान करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि दोनों लक्षण एक दूसरेके अभिव्यंजक होते हैं इनका अलग-अलग निर्देश किया है । दोनों लक्षण एक दूसरे पूरक हैं । अन्वय होनेसे गुणोंकी व्याप्ति नित्यताके साथ है और द्रव्य नित्यताका पर्यायवाची है। क्रमवर्ती और व्यतिरेकी होनेसे पर्यायोंकी व्याप्ति अनित्यताके साथ है और उत्पाद तथा व्यय अनित्य होते हैं । इस प्रकार गुरुपर्याय ये स्वभाववान या लक्ष्य स्थानीय है । और उत्पाद व्यय और धौव्य ये स्वभाव या लक्षण स्थानीय है । किसी अपेक्षासे गुण नित्यानित्यात्मक है क्योंकि सत् अथवा द्रव्य व पर्याय गुणोंसे सर्वथा पृथक् नहीं है । आगे अनेकान्त दृष्टिसे वस्तु के विचारमें कथंचित् अस्ति नास्ति, नित्यानित्य, एक अनेक, तत् अतत् इन चार युगलोंके वस्तु गुंफित हैं, यह सिद्ध किया गया है । नया स्वरूप ग्रन्थकारने लिखा है कि उदाहरण हेतु और फलके साथ विवक्षित वस्तु के गुणोंको उसीका कथन करने वाला समीचीन नय है । इससे विपरीत नयाभास है । इस लक्षणसे जीव वर्णादि वाला, मनुष्य आदि शरीर रूप, गृह कुटुम्ब आदि सुखका कर्ता भोक्ता और ज्ञानज्ञेयका बोध्य बोधक सम्बन्ध । ये चारों नयाभास हैं । जबकि यह अन्यत्र उपचारित अनुपचरित, असद्भूत व्यवहारनयके अन्तर्गत बताये गये हैं । किन्तु यहाँ ग्रन्थकारने नयका उक्त लक्षण बताकर इनका निषेध ठीक ही किया है । इसे अध्यात्म दृष्टिसे माना जाना चाहिए । इसी प्रकार सद्भूत अनुचरित और उपचरित तथा असद्भूत अनूपचरित और उपचरित के लक्षण और उदाहरण भी उक्त दृष्टिसे यहाँ दिये गये हैं । जो अनगारधर्मामृत और आलापपद्धतिसे भिन्न हैं व्यवहार नयके चारों भेदोंके उदाहरण निम्न प्रकार हैं १. सद्भूत अनुपचरित - ज्ञान जीवका है । २. सदभूत उपचरित = अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान । ३. असदभूत अनुपचरित = अबुद्धिपूर्वक क्रोधादि जीवके हैं । ४. असद्भूत उपचरित = बुद्धिपूर्वक क्रोधादि औदयिक भाव जीवके हैं । इस ग्रन्थके व्यवहार नय और निश्चय नयको क्रमशः प्रतिषेध्य तथा प्रतिषेधक या भूतार्थ अभूतार्थं होनेका कारण यह बताया है कि वास्तव में पदार्थ एक और अखंड है, तब द्रव्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा उसमें भेद करते हैं, जो परमार्थं भूत नहीं हैं । व्यवहार नय इनकी अपेक्षा वस्तुको निषेध करता है अतः वह निश्चयनयापेक्षया प्रतिषेध्य अभूतार्थ और मिथ्या 1 वस्तुका द्रव्य गुण और पर्यायरूप विभाग करना वास्तविक नहीं है और उस एक अखण्ड वस्तुको विषय करने वाला निश्चयनय है, जिसका अनुभव करने वाला सम्यक दृष्टि है । ग्रन्थकारने निश्चयनयमें शुद्ध - अशुद्ध आदि भेद मानने वालोंको मिथ्यादृष्टि और सर्वज्ञकी आज्ञाका उल्लंघन करने वाला माना है क्योंकि आत्म शुद्धिके लिए जो उपयोगी हो वही माना जाना चाहिए । वावदूक व्यवहारनय श्रेयस्कर व्यवहार निश्चय सम्बन्धमें भी आत्म हितके सिवाय वस्तु विचारके समय ज्ञान दोनों नयोंका आश्रय होकर प्रवृत्त होता है । तथा निश्चयमें अनिर्वचनीय है इसलिए तीर्थ स्थापन हेतु है । इस प्रकार दोनों नयोंकी सापेक्षताको भी नहीं छोड़ा है । स्वानुभूतिके लिए व्यवहारनय जैसे विकल्परूप है वैसे निश्चयनय भी निषेधात्मक विकल्प रूप है अतः स्वानुभूति नयपक्षातीत है । स्वानुभूतिके समय मति श्रुत ज्ञानों (परोक्ष होनेपर भी ) से जितना भी ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञानके समान प्रत्यक्ष है । इसके सिवा शेष मति श्रुत ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं । इन्द्रिय विषयोंको ग्रहण करने और आत्मा आदिको जानते समय ये दोनों ज्ञान परोक्ष ही हैं । अवधि और मनःपर्यायज्ञान ( प्रत्यक्ष होनेपर भी) का विषय आत्मा नहीं है । आगे दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211303
Book TitlePanchdhyaya tika Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Shastri
PublisherZ_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size496 KB
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