SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड ६१९ ही कहाँ मिल सका ? पंचाध्यायीमें कतिपय स्थानोंपर " तदाह सूरिः " ऐसे वाक्य आनेसे यह प्रतीत होता है कि किसी प्राचीन आचार्य ( अमृतचन्द्र सूरी ) की रचनाको पंचाध्यायीकारने हृदयंगम कर अपनी इस कृतिकी रचना की है। स्वयं अमृतचन्द्र अपनेको सूरी बताकर उत्तर देवें यह असंगत मालूम होता है। श्री पंडित मक्खनलाल जी शास्त्रीके पंचाध्यायी हिन्दी अनुवादके पश्चात् सन् १९३२ में श्री पंडित देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्रीने पंचाध्यायीकी हिन्दी गीता रचकर कारंजा आश्रमसे प्रकाशित कराई थी। उसमें शब्दानुगामी अर्थ और तात्पर्य का पूरा ख्याल रखा गया है। जबकि पूर्व टीकामें भावार्थ और उसके विस्तारको महत्व दिया गया है इससे कहीं-कहीं मूलका हार्द छूट सा गया है। तीसरी बार पंचाध्यायीकी टीका श्री पं० देवकीनन्दन और उसका सम्पादन श्री पण्डित फूलचन्द्र जीने किया जो सन् १९५० में "श्री गणेशप्रसाद वर्णों जैन ग्रन्थमाला" वाराणसी से प्रकाशित हुई । इसमें मूलविषयको स्पर्श करते हुए स्वतन्त्र रूपसे विवेचन किया गया है। पंचाध्यायीका संक्षिप्त हिन्दी भाषा अनुवाद और नयकी दृष्टिसे विचार करते हुए भी सरनारामजीने भी किया है वर्णी ग्रन्थमालाकी इस पंचाध्यायीमें faresो खूब स्पष्ट किया गया है। जिसमें श्री पंडित फूलचन्द्रजीका अपने गुरु श्री देवकीनन्दनजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए विशेष हाथ है । इसकी प्रस्तावना भी पंडित फूलचन्द्रजीने ५२ पृष्ठों में लिखी है उसमें प्रस्तुत ग्रन्थका सार आ गया है । कविवर राजमलजीके, जिन्होंने पंचाध्यायीके प्रारम्भमें पंचम श्लोकमें अपनेको कवि लिखा है, “लाटी संहिता " ग्रन्थ में इसके सम्यक्त्वके सम्बन्धित ४२६ श्लोक समान रूपमें पाये जाते हैं । प्रस्तावना में दर्शनका महत्त्व और दर्शनके विभिन्न भेदोंमें अन्तर बतलाते हुए सम्यक्अनेकांत मिथ्या अनेकान्त एवं सम्यक्एकांतमिया एकान्तका लक्षण लिखा है। द्रव्य और उसके भेद, जीवके स्वभाव आदिके विषयमें लिखते हुए आपने उसकी कमजोरी और उसके दूर करनेका उपायको रत्नत्रय बतलाया है। यहाँ जैन दर्शन का सार व्यक्ति स्वातन्त्र्य पर अधिक जोर दिया है। मूल ग्रन्थकारने तत्त्व का लक्षण सन्मात्र मात्र बताते हुए उसे स्वतंत्र सिद्ध, अनादि, अनिधन, स्वसहाय और अखण्ड सिद्ध किया है वह सत् या सत्ता, द्रव्य पर्याय रूप है । द्रव्यार्थिक और पर्यार्यार्थक नयका विषय है व नाना पदार्थों में स्थित है अतः नाना रूप है, सर्व पदार्थोंमें अन्वय रूपसे पायी जाती है, अतः एक है । विवक्षा भेदसे विश्व रूप एक रूप उत्पादादि विलक्षणात्मक त्रिलक्षणाभाव आदि प्रतिपक्ष रूपता उसमें पाई जाती है। इस विषय में जगतके प्राणो अपने मनका समाधान जगतका कर्ता ईश्वर मानकर करते हैं, उसका समुचित उत्तर ग्रन्थकारने वस्तुको स्वतः सिद्ध अनादिअनंत सिद्ध करके दिया है। उसे स्व सहाय बताकर उसका स्वतन्त्र परिणमन फल सिद्ध किया है। वस्तु निर्विकल्प याने अखण्ड है इस प्रकार सामान्य या अभेददृष्टिसे निरूपण करनेके पश्चात् विशेष, पर्याय या व्यवहार दृष्टिसे द्रव्यका लक्षण - १ गुणपर्ययवद द्रव्यम् २. गुणसमुदायो द्रव्यं ३. सभगुणपर्यायोद्रव्यम् ४. उत्पादव्ययप्रोव्ययुक्तम् सत्-सद्द्रव्यलक्षणं चार प्रकार किया है। यहाँ द्रव्य, तत्व, सत्व, अन्वय, वस्तु, अर्थ, सामान्य विविध ये पर्यायवाची शब्द होनेसे उक्त द्रव्यका लक्षण बतलाया गया है । द्रव्यके प्रथम लक्षणमे द्रव्य अनंत गुणों और उनकी पर्यायों का पिण्ड माना है। अम्बयीगुण और व्यतिरेकी पर्यायें हैं। यह गुण पर्याय वाला द्रव्य, गुण और पर्यायोंका समुदाय मात्र है इसलिए गुण समुदाय भी द्रव्य है। पहले दोनों लक्षण परस्पर पूरक हैं। गुण और पर्याय वाला या गुण वाला द्रव्य है, इस कथन से गुण और पर्याय भिन्न दिखते हैं, इसलिये तीसरा द्रव्यका लक्षण समगुण पर्याय किया गया है। उसमें देश देशांस, गुण गुणांश द्रव्य है । जैसे स्कन्ध, शाखा आदि वृक्ष है, उसी तरह देश देशांश या गुण गुणांश द्रव्य है । इन तीन लक्षणों के अतिरिक्त चौधे लक्षण उत्पादव्यय धीव्य युक्तम् की आवश्यकता इसलिये है कि नित्यत्वकी गुणके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211303
Book TitlePanchdhyaya tika Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Shastri
PublisherZ_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size496 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy