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पंचविध ध्यान-पद्धतिः स्वरुप, विश्लेषण
महासती श्री उमरावकुवर 'अर्चना'
अपने अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभूति के परिणाम-स्वरूप ध्यानाभ्यास की दृष्टि से सर्वसाधारण के लाभ हेतु एक सरलतम ध्यान-पद्धति प्रस्तुत करने का मेरा प्रयास रहा है। प्रार्थना, योगमुद्रा, दीपक मुद्रा, वीतरागमुद्रा तथा आनन्दमुद्रा के रूप में उसकी पांच विधाएँ हैं। यह ध्यानपद्धति योगाभ्यास में अभिरुचि रखने वाले भाई-बहिनों के लिए बड़ी उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हुई है। इसके सहारे साधक भाई-बहिनों ने ध्यान के अभ्यास में स्पृहणीय प्रगति की है ।
प्रस्तुत ध्यान-पद्धति की पाँच विधाएँ इस प्रकार हैं
१. प्रार्थना
श्रद्धा जीवन की दिव्यता का निदर्शन है। श्रद्धा में अहंकार-विसर्जन तथा स्वरूपमर्जन का दिशाबोध है। यह अन्तःपरिष्कार की प्रक्रिया है। प्रार्थना श्रद्धा-प्रसूत है, श्रद्धावर्धक भी । प्रार्थना में अर्थना के साथ जूडा "प्र" उपसर्ग अर्थना, चाह या मांग में एक वैशिष्ट्य का समावेश करता है। वह वैशिष्ट्य पुरुषार्थ-जागरण का संदेश है । रागद्वेषातीत, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परमात्मा, परम पुरुष या परब्रह्म का आदर्श प्रार्थी के समक्ष है। प्रार्थी प्रार्थना, जो अन्तःप्रेरणा संजोने का रहस्यमय अर्थ लिये है, करता हुआ बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव तथा अन्तरात्मभाव से परमात्मभाव की उपलब्धि के लिए उद्यम करता है, जो बड़ा सूक्ष्म होता है, तलावगहो होता है।
प्रार्थनावस्था में साधक वज्रासन में स्थित हो। ध्यान रहे, वज्रासन का ही कोई दृढ़ प्राग्रह नहीं है । यदि साधक को अधिक प्रानुकूल्य हो तो वह सुखासन, कमलासन आदि किसी अन्य प्रासन का भी उपयोग कर सकता है । साधक के दोनों हाथ जुड़े हों। संयुक्त दोनों अंगुष्ठ नासाग्र पर लगे हों। यह काय-स्थिति भावों के अन्त:परिणमन में प्रेरक और सहायक होती है।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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