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________________ 18: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है कि मलग्रन्थ या टीकाओंमें पूर्वपक्ष कहाँ समाप्त होता है और उत्तरपक्ष कहाँसे प्रारम्भ होता है किन्तु पं० महेन्द्रकुमारजीने अपने अनुवादमें ईश्वरवादी जैन अथवा शंका-समाधान ऐसे छोटे-छोटे शीर्षक देकरके बहुत ही स्पष्टताके साथ पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षको अलग-अलग रख दिया ताकि पाठक दोनों पक्षोंको अलग-अलग ढंगसे समझ सके। भाषाकी दृष्टिसे पंडितजीके अनुवादकी भाषा अत्यन्त सरल है। उन्होंने दुरूह संस्कृतनिष्ठ वाक्यों की अपेक्षा जनसाधारणमें प्रचलित शब्दावलीका ही प्रयोग किया है / यही नहीं, यथास्थान उर्दू और अंग्रेजी शब्दोंका भी निःसंकोच प्रयोग किया है। उनके अनुवादमें प्रयुक्त कुछ पदावलियों और शब्दोंका प्रयोग देखें-"यह जगत् जाल बिछाया है।" "कर्मोंके हुकुमको बजानेवाला मैनेजर"; "बैठे-ठाले"; "हाइड्रोजन में जब आक्सीजन" अमुक मात्रामें मिलता है तो स्वभावसे ही जल बन जाता है; "इसके बीचके ऐजेन्ट ईश्वर की क्या आवश्यकता है", बिना जोते हुए अपनेसे ही उगनेवाली जंगली घास; "प्रत्यक्षसे कर्ताका अभाव निश्चित है।" ( देखें पृ० 102-103 ) आदि / वस्तुतः ऐसी शब्द योजना सामान्य पाठकके लिए विषयको समझने में अधिक कारगर होती है। जहाँ तक पं० महेन्द्रकुमारजीके वैदुष्यका प्रश्न है, इस ग्रन्थको व्याख्यासे वह अपने आप ही स्पष्ट हो जाता है क्योंकि जब तक व्यक्ति षड्दर्शनों एवं मात्र इतना ही नहीं उनके पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षका सम्यक् ज्ञाता न हो तब तक वह उनकी टीका नहीं लिख सकता / यद्यपि प्रस्तुत टीकामें जैनदर्शनके पूर्वपक्ष एवं पूर्वपक्षको विस्तार दिया है किन्तु अन्य दर्शनोंके भी पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष तो अपनी जगह उपस्थित हुए ही हैं / अतः षड्दर्शनसमुच्चय जैसे ग्रन्थकी टीकापर एक नवीन व्याख्या लिख देना केवल उसी व्यक्तिके लिए सम्भव है जो किसी एक दर्शनका अधिकारी विद्वान न होकर समस्त दर्शनोंका अधिकारी विद्वान हो। पं० महेन्द्रकुमारजीको यह प्रतिभा है कि वे इस ग्रन्थकी सरल और सहज हिन्दी व्याख्या कर सके / दार्शनिक जगत् उनके इस अवदानको कभी भी नहीं भुला पाएगा / वस्तुतः उनका यह अनुवाद, अनुवाद न होकर एक स्वतन्त्र व्याख्या ही है / उनकी वैज्ञानिक सम्पादन पद्धतिका यह प्रमाण है कि उन्होंने प्रत्येक विषयके संदर्भ में अनेक जैन एवं जैनेतर ग्रन्थोंसे प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। संदर्भ ग्रन्थोंकी यह संख्या सम्भवतः सौसे भी अधिक होगी जिनके प्रमाण टिप्पणीके रूपमें तुलना अथवा पक्ष समर्थनकी दृष्टिसे प्रस्तुत किए गए है / ये टिप्पण पं० महेन्द्रकुमारजीके व्यापक एवं बहुमुखी प्रतिभाके परिचायक है। यदि उन्हें इन सब ग्रन्थोंका विस्तृत अवबोध नहीं होता तो यह सम्भव नहीं था कि वे इन सब ग्रन्थोंसे टिप्पण दे पाते / परिशिष्टोंके रूपमें षड्दर्शनसमुच्चयकी मणिभद्रकृत लघुवृत्ति, अज्ञातकर्तृक अवणिके साथ-साथ कारिका, शब्दानुक्रमिका, उद्धृत वाक्य, अनुक्रमणिका, संकेत विवरण आदिसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पं० महेन्द्रकुमारजी केवल परम्परागत विद्वान् ही नहीं थे अपितु वे वैज्ञानिक रीतिसे सम्पादन-कलामें भी निष्णात थे। वस्तुतः उनकी प्रतिभा बहुमुखी और बहुआयामी थी, जिसका आकलन उनकी कृतियों के सम्यक् अनुशीलनमें ही पूर्ण हो सकता है। षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नकी टीकापर उनको यह हिन्दी व्याख्या वस्तुतः भारतीय दर्शन जगत्को उनका महत्त्वपूर्ण अवदान है जिसके लिए वे विद्वज्जगत्में सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211300
Book TitleShad darshan Samucchaya ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size525 KB
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