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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
का शरीर परिवर्तनशील तो है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं । नैतिक मूल्यों का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर और परिस्थिति बदलती रहती है किन्तु मूल्यों की नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर रहता है।
वस्तुतः नैतिक मूल्यों की वास्तविकता प्रकृति में परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता के दोनों ही पक्ष उपस्थित हैं। नीति का कौन सा पक्ष परिवर्तनशील होता है और कौन-सा पक्ष अपरिवर्तनशील होता है, इसे निम्नाकित रूप में समझा जा सकता है।"
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१. सङ्कल्प का नैतिक मूल्य अपरिवर्तनशील होता है और आचरण का नैतिक मूल्य परिवर्तनशील होता है हिंसा का सङ्कल्प कभी नैतिक नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नहीं दूसरे शब्दों में कर्म का जो मानसिक या बौद्धिक पक्ष है वह निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय है किन्तु कर्म का जो व्यावहिरक एवं आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष एवं परिवर्तनशील है । सङ्कल्प का क्षेत्र, प्रज्ञा का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना ही सर्वोच्च शासक है। अन्त में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है। वहाँ परिस्थितियों या समाज का शासन नहीं है, अतः इस क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की निरपेक्षता एवं अपरिवर्तनशीलता सम्भव है। निष्काम कर्म योग का दर्शन इसी सिद्धान्त पर स्थित है, क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यात्मक रूप कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता। अतः यह माना जा सकता है कि वे मूल्य जो मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक नीति से सम्बन्धित हैं, अपरिवर्तनीय हैं; किन्तु वे मूल्य जो आचरणात्मक या व्यवहारात्मक हैं, परिवर्तनीय हैं।
२. दूसरे, नैतिक-साध्य या नैतिक आदर्श अपरिवर्तनशील होता है किन्तु उस साध्य के साधन परिवर्तनीय होते हैं जो सर्वोच्च शुभ है वह अपरिवर्तनीय है, किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति के जो नियम या मार्ग हैं वे विविध एवं परिवर्तनीय हैं, क्योंकि एक ही साध्य की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि सर्वोच्च शुभ को छोड़कर कुछ अन्य साध्य कभी साधन भी बन जाते है अतः साध्य साधन का वर्गीकरण निरपेक्ष नहीं है. उनमें परिवर्तन सम्भव है। यद्यपि जब तक कोई मूल्य साध्य स्थान पर बना रहता है, तब तक उसकी मूल्यवता अपरिवर्तनीय रहती है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी स्थिति में जो साध्यमूल्य है, वह कभी साधन मूल्य नहीं बनेगा । मूल्य- विश्व के अनेकों मूल्य ऐसे हैं, जो कभी साधन मूल्य है, वही कभी साध्य-मूल्य है। अतः उनकी मूल्यवत्ता अपने स्थानपरिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती है। पुनः वैयक्तिक रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं है। अतः साधनमूल्यों को परिवर्तनीय मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण हो सकता है।
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३. तीसरे, नैतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं और कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं। साधारणतया सामान्य या मूलभूत नियम ही अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, विशेष नियम
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परिवर्तनीय होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि अनेक परिस्थितियों में सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी इतना तो ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता है।
यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों एवं साध्य - मूल्यों की अपरिवर्तनशीलता भी एकान्तिक नहीं है। वस्तुतः नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में एकान्त रूप से अपरिवर्तनशीलता और एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि नैतिक मूल्य एकान्त रूप से परिवर्तनशील होगे तो उनकी कोई नियमकता ही नहीं रह जावेगी। इसी प्रकार वे यदि एकान्त रूप से अपरिवर्तनशील होंगे तो सामाजिक सन्दर्भों के अनुरूप नहीं रह सकेंगे। नैतिक- नैतिक मूल्य इतने निलोंच तो नहीं है कि वे परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर सकें, किन्तु वे इतने लचीले भी नहीं कि हर कोई उन्हें अपने अनुरूप ढालकर उनके स्वरूप को ही विकृत कर दे ।
परिवर्तनशीलता प्रगति या प्रतिगति
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आज परिवर्तनशीलता को प्रगति का लक्षण माना जाने लगा है, किन्तु क्या परिवर्तनशीलता प्रगति की परिचायक है? इस प्रश्न का उत्तर भी एकान्त रूप से नहीं दिया जा सकता है परिवर्तनशीलता प्रगति भी हो सकती है और प्रतिगति भी पुनः कोई मूल्य परिवर्तन एक दृष्टि से प्रगति कहा जा सकता है, वहीं दूसरी दृष्टि से प्रतिगति भी कहा जा सकता है। वर्तमान युग के जीवन-मूल्य एक दृष्टि से प्रगतिशील हो सकते हैं तो दूसरी दृष्टि से प्रतिगति के परिचायक भी कहे जा सकते हैं आज एक ओर मनुष्य का ज्ञान बढ़ा है, समृद्धि बढ़ी है, उसकी प्रकृति पर शासन करने की शक्ति बढ़ी है; किन्तु दूसरी ओर जीवन में अक्षमता बढ़ी है, वासनाएँ बढ़ी हैं, असन्तोष बढ़ा है। इसे क्या कहें प्रगति या प्रतिगति? आज नारी स्वातन्त्र्य को एवं स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को, प्रगति कहा जाता है, किन्तु पाण्डु - कुन्ती सम्वाद में जो नारी-स्वातन्त्र्य का चित्र है, उसकी अपेक्षा से तो आज का यूरोप भी पिछड़ा हुआ ही कहा जावेगा। पाण्डु कहते हैं—
अनावृताः किल पुरा स्त्रिय आसन् वरानने । कामाचारविहारिण्यः स्वतन्त्राञ्चारुहासिनि ।। तासां व्युच्चरमाणानां कौमारात् सुभगे पतीन् । नाधर्मोऽभूद्रवरारोहे स हि धर्मः पुराभवत् ।। "
'पूर्व काल में स्त्रियों अनावृत्त थीं, वे भोग-विलास के लिए स्वतन्त्र होकर घूमा करती थीं, वे कौमार्य अवस्था में काम सेवन करती थीं, वह उनके लिए अधर्म नहीं था' आज समाज में इन्हीं मूल्यों की पुनः स्थापना करके हम प्रगति करेंगे या प्रतिगति, यह तो स्वयं हमारे विचारने की वस्तु है केवल प्रचलित एवं परम्परागत मूल्यों का निषेध नैतिक प्रगति का लक्षण नहीं है। आज हमें मानवीय विवेक के आलोक में सर्वप्रथम मूल्यों का पुनर्मूल्याङ्कन करना होगा। हमारी नैतिक प्रगति
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