Book Title: Naitik Mulyo ki Parivartanshilta Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ २४४ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार तथा सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण की विविधता और परिवर्तनशीलता है। अत: नैतिक प्रतिमानों में विविधता या अनेकता स्वभाविक ही है। वैयक्तिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान और सामाजिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान भिन्न होगा। इसी प्रकार वासना पर आधारित नैतिक प्रतिमान, विवेक पर आधारित नैतिक प्रतिमान से अलग होगा। राष्ट्रवादी व्यक्ति की नैतिक कसौटी अन्तर्राष्ट्रीयता समर्थक या मानवतावादी व्यक्ति की नैतिक कसौटी से पृथक् होगी । पूँजीवाद और साम्यवाद के नैतिक मानदण्ड भित्र-भित्र ही रहेंगे। अतः हमें नैतिक मानदण्डों में अनेकता को स्वीकार करना होगा। कुछ लोग यहाँ परम् शुभ की आवधारणा के आधार पर एक नैतिक प्रतिमान का दावा कर सकते हैं। किन्तु उनका यह परम शुभ या तो इन विभिन्न शुभों या हितों को अपने में अन्तर्निहित करेगा या इनसे पृथक् होगा। नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का प्रश्न प्राचीन काल से ही दार्शनिक चिन्तन का विषय रहा है, किन्तु आज जब परिवर्तन की हवा तेजी से बह रही है और परिवर्तन के नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा है, तब यह प्रश्न अधिक गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा करता है। Jain Education International नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता पर विचार करते समय सबसे पहले हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि उक्त परिवर्तनशीलता से हमारा क्या तात्पर्य है? कुछ लोग परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं नीति की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति से लेते हैं आज जब नैतिक मूल्यों को सांवेगिक अभिव्यक्ति या वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुमोदन एवं रुचि का पर्याय माना जा रहा हो, तब परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं उनकी मूल्यवत्ता को नकारना ही होगा। आज नीति की मूल्यवत्ता स्वयं अपने अर्थ की तलाश कर रही है। यदि नैतिक प्रत्यय अर्थहीन है, यदि वे मात्र प्रत्ययाभास (Pseudo-concepts) हैं, तो फिर उनकी परिवर्तनशीलता का भी कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि यदि नैतिक मूल्यों का यथार्थ एवं वस्तुगत अस्तित्व ही नहीं है, यदि ये मात्र मनोकल्पनायें हैं तो उनके परिवर्तन का ठोस आधार भी नहीं होगा। दूसरे, जब हम शुभ एवं अशुभ अथवा औचित्य एवं अनौचित्य के प्रत्ययों को वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुमोदन या पसन्दगी किंवा नापसन्दगी के रूप में देखते हैं, तो उनकी परिवर्तनशीलता का अर्थ फैशन की परिवर्तनशीलता से अधिक नहीं रह जाता है। यदि परम् शुभ इन भिन्न-भिन्न मानवीय शुभों को अपने में अन्तर्निहित करेगा तो वह भी नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को स्वीकार करेगा और यदि वह इन मानवीय शुभों से पृथक् होगा तो नीतिशास्त्र के लिए व्यर्थ ही होगा क्योंकि नीतिशास्त्र का पूरा सन्दर्भ मानव का संदर्भ है। नैतिक प्रतिमान का प्रश्न तभी तक महत्त्वपूर्ण है जब तक मनुष्य, मनुष्य के स्तर से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त कर लेता है या मनुष्य के स्तर से नीचे उतर कर पशु बन जाता है, तो उसके लिये नैतिकता या अनैतिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है और ऐसे वास्तविक मनुष्य के लिये नैतिक प्रतिमान अनेक ही होंगे। क्योंकि उसका अस्तित्व बहुआयामी और अन्तर्विरोधों से युक्त है। इस प्रकार नैतिक प्रतिमानों के सन्दर्भ में अनैकान्तिक दृष्टिकोण ही सम्यक् होगा। हमारी इस स्थापना को यदि कोई नाम देना हो तो हम इसे नैतिक प्रतिमानों का 'अनेकान्तवाद' कह सकते हैं। क्या नीति की मूल्यवत्ता पर वैसा प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है? क्या नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता के समान है, जिन्हें जब चाहें तब और जैसा चाहें वैसा बदला जा सकता है? आइये, जरा प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीर चर्चा करें। सर्वप्रथम तो आज जिस परिवर्तनशीलता अथवा गत्यात्मकता की बात कही जा रही है, उससे तो स्वयं नैतिकता के मूल्य होने में ही अनास्था उत्पन्न हो गई है। आज का मनुष्य अपनी पाशविक वासनाओं की पूर्ति के लिए विवेक एवं संयम की नियामक मर्यादाओं की अवहेलना को ही मूल्य परिवर्तन मान रहा है। वर्षों के चिन्तन और साधना से फलित ये मर्यादायें आज उसे कोरी लग रही हैं और इन्हें तोड़-फेंकने में ही उसे मूल्य क्रान्ति परिलक्षित हो रही है। स्वतन्त्रता के नाम पर वह अतन्त्रता और अराजकता को ही मूल्य मान बैठा है। किन्तु यह सब मूल्य विभ्रम या मूल्य विपर्यय ही है जिसके कारण नैतिक मूल्यों के निर्मूल्यीकरण को ही परिवर्तन कहा जा रहा है। यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि मूल्य संक्रमण या मूल्यान्तरण मूल्यनिषेध नहीं है परिवर्तनशीलता का तात्पर्य स्वयं नीति के मूल्य होने में अनास्था नहीं है। यह सत्य है कि नैतिक मूल्यों में और नीति-सम्बन्धी धारणाओं में परितर्वन हुए हैं और होते रहेंगे, किन्तु मानव इतिहास में कोई भी काल ऐसा नहीं है जब स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार किया गया हो। वस्तुतः नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता में भी कुछ ऐसा अवश्य है जो बना रहता है और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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