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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता
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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक रूप वह होता है, आनुषंगिकता के कारण नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित हो जाते जिसमें किसी मूल्य की मूल्यवत्ता को अस्वीकार नहीं किया, किन्तु हैं और कभी-कभी तो नैतिक जगत के प्रमुख मूल्य या नियामक मूल्य उनका पदक्रम बदलता रहता है; अर्थात् मूल्यों का निर्मूल्यीकरण नहीं बन जाते हैं। अर्थ और काम ऐसे ही मूल्य हैं जो स्वरूप: नैतिक होता, अपितु उनका स्थान-संक्रमण होता है। किसी युग में जो नैतिक मूल्य नहीं हैं फिर भी नैतिक मूल्यों के वर्ग में सम्मिलित होकर उसका गुण प्रमुख माने जाते रहे हैं, वे दूसरे युग में गौण हो सकते हैं; और नियमन और क्रम-निर्धारण भी करते हैं। यह सम्भव है कि जो एक जो मूल्य गौण थे वे प्रमुख हो सकते हैं। उच्च मूल्य निम्न स्थान परिस्थिति में प्रधान मूल्य हो, वह दूसरी परिस्थिति में प्रधान मूल्य पर तथा निम्न मूल्य उच्च स्थान पर या साध्य या मूल्य साधन स्थान न हो, किन्तु इससे उनकी मूल्यवत्ता समाप्त नहीं हो जाती है। पर तथा साधन-मूल्य साध्य स्थान पर आ जा सकते हैं। कभी न्याय पारिस्थितिक या सापेक्ष मूल्य दूसरे मूल्यों के निषेधक नहीं होते हैं। का मूल्य प्रमुख और अहिंसा का मूल्य गौण था; न्याय की स्थापना दो परस्पर विरोधी मूल्य भी अपनी-अपनी परिस्थिति में अपनी मूल्यवत्ता के लिए हिंसा को विहित माना जाता था; किन्तु जब अहिंसा का प्रत्यय को बनाये रख सकते हैं। वे दोनों मूल्य अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रमुख बन गया तो अन्याय को सहन करना भी विहित माना जाने अपनी अपनी मूल्यवत्ता रखते हैं। एक दृष्टि से जो मूल्य लगता है लगा। ग्रीक मूल्यों के स्थान पर ईसाईयत के मूल्यों की स्थापना में वह दूसरी दृष्टि से निर्मूल्य हो सकता है, किन्तु अपनी दृष्टि या अपेक्षा ऐसा ही परिवर्तन हुआ। आज साम्यवादी दर्शन सामाजिक न्याय के से तो वह मूल्यवान् बना रहता है। लेकिन यह बात पारिस्थितिक मूल्यों हेतु खूनी क्रान्ति की उपादेयता की स्वीकृति के द्वारा पुन: अहिंसा के सम्बन्ध में ही अधिक सत्य लगती है। के स्थान पर न्याय को ही प्रमुख मूल्य के पद पर स्थापित करना चाहता है। किन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं है कि ग्रीक सभ्यता में मूल्य-परिवर्तन के आधार या साम्यवादी दर्शन में अहिंसा पूर्णतया निर्मूल्य है, ईसाइयत में न्याय वस्तुत: मूल्यों के तारतम्य या उच्चावच क्रम में यह परिवर्तन का कोई स्थान ही नहीं है। मात्र होता यह है कि युग की परिस्थितियों दैशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता है। मनुस्मृति में के अनुरूप मूल्य-विश्व के कुछ मूल्य उभरकर प्रमुख बन जाते हैं, कहा गया हैऔर दूसरे उनके परिपार्श्व में चले जाते हैं। साम्यवाद और प्रजातंत्र
अन्ये कृत-युगे धर्मास्त्रतायां द्वापरे परे। के राजनैतिक दर्शनों का विरोध, मूल्य-विरोध नहीं, मूल्यों की प्रधानता
अन्ये कलियुगे नृणां युग-ह्रासानुरूपतः।।" का विरोध है। साम्यवाद के लिए रोटी और सामाजिक न्याय प्रधान युग के ह्रास के अनुरूप सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग के मूल्य हैं और स्वतन्त्रता गौण मूल्य है, जबकि प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता धर्म अलग-अलग होते हैं। किन्तु युगानुरूप मूल्य-परिवर्तन का अर्थ प्रधान मूल्य है और रोटी गौण है। आज स्वच्छन्द यौनाचार का समर्थन यह नहीं है कि पूर्वमूल्य निर्मूल्य हैं, अपितु इतना ही है कि वर्तमान भी संयम के स्थान पर स्वतन्त्रता (अतन्त्रता) को ही प्रधान मूल्य मानने परिस्थिति में उनकी वह मूल्यवत्ता या प्रधानता नहीं रह गई है जो के एक अतिवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। सुखवाद और बुद्धिवाद कि उस परिस्थिति में थी। अत: परिस्थितियों के परिवर्तन से होने का मूल्य-विवाद भी ऐसा ही है, न तो सुखवाद बुद्धि तत्त्व को निर्मूल्य वाला मूल्य-परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा। मानता है और न बुद्धिवाद सुख को निर्मूल्य मानता है। मात्र इतना यह सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना है वह ही है कि सुखवाद में सुखप्रधान मूल्य है और बुद्धि गौण मूल्य है, परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं है। दैशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन जबकि बुद्धिवाद में विवेक प्रधान मूल्य है और सुख गौण मूल्य है। हमारे मूल्यबोध को प्रभावित करते हैं, किन्तु इसमें मात्र यही होता इस प्रकार मूल्य-परिवर्तन का अर्थ उनके तारतम्य में परिवर्तन है, जो है कि कोई मूल्य प्रधान दिखाई देता है और दूसरे परिपार्श्व में चले कि एक प्रकार का सापेक्षित परिवर्तन ही है। कभी-कभी मूल्य-विपर्यय जाते हैं। दैशिक और कालिक परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि को ही मूल्य-परिवर्तन मानने की भूल की जाती है, किन्तु हमें यह जो कर्म एक देश और काल में विहित हो, वही दूसरे देश और काल ध्यान रखना होगा कि मूल्य-विपर्यय मूल्य-परिवर्तन नहीं है। में अविहित हो जावे। अष्टक-प्रकरण में कहा गया हैसल्य-विपर्यय में हम अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को जो कि वास्तव उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालोभयान् प्रति। मैं मूल्य है ही नहीं मूल्य मान लेते हैं- जैसे स्वच्छन्द यौनाचार को यस्यामकार्यं कार्यं स्यात् कर्म कायं च वर्जयेत् ।।५ नैतिक मान लेना। दूसरे यदि 'काम' की मूल्यवत्ता के नाम पर कामुकता दैशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था तथा रोटी की मूल्यवत्ता के नाम पर स्वाद-लोलुपता या पेटूपन का उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य अकार्य की कोटि में और अकार्य समर्थन किया जाये, तो यह मूल्य-परिवर्तन नहीं होगा, मूल्य-विपर्यय कार्य की कोटि में आ जाता है। किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था या मूल्याभास ही होगा। क्योंकि 'काम' या 'रोटी' मूल्य हो सकते नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है जिसे आपवादिक अवस्था हैं किन्तु 'कामुकता' या 'स्वाद लोलुपता' किसी भी स्थिति में मूल्य के रूप में जानते हैं। किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला मूल्य नहीं हो सकते हैं। इसी संदर्भ में एक तीसरे प्रकार का मूल्य-परिवर्तन परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य-परिवर्तन से भिन्न स्वरूप परिलक्षित होता है। जिसमें मूल्य-विश्व के ही कुछ मूल्य अपनी का होता है। उसे वस्तुत: मूल्य-परिवर्तन कहना भी कठिन है।
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