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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
आधी का जन्म विक्रम संवत् १३२५ में आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को उदयपुर राज्य के बगगुदा (मेवाड़) में हुआ। आपके पूज्य पिताश्री का नाम देवीलाल जी लोढ़ा और माता का नाम कमलादेवी था ।
बचपन से ही आपका झुकाव सन्त सतियों की ओर था। प्रकृति की उन्मुक्त गोद में खेलना जहाँ उन्हें पसन्द था वहाँ उन्हें सन्त सतियों के पावन उपदेश को सुनना भी बहुत ही पसन्द था ।
आचार्यसम्राट् पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज के छठे पट्टधर आचार्य श्री पूनमचन्दजी महाराज एक बार विहार करते हुए बबुन्दा पचारे पूज्यथी के स्याग-चैराग्ययुक्त प्रवचनों को सुनकर आपक्षी के मन में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई और आपने दीक्षा लेने की उत्कट भावना अपने परिजनों के समक्ष व्यक्त की। किन्तु पुत्र-प्रेम के कारण उनकी आँखों से अश्र छलक पड़े । उन्होंने अनेक अनुकूल और प्रतिकूल परीषह देकर उनके वैराग्य का परीक्षण किया, किन्तु, जब वैराग्य का रंग धुंधला न पड़ा तब विक्रम संवत् १६४० में फाल्गुन शुक्ल छठ को बगडुन्दा ग्राम में आचार्य प्रवर पूनमचन्दजी महाराज के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की।
आप में असाधारण मेधा थी। अपने विद्यार्थी जीवन में इकतीस हजार पद्यों को कण्ठस्थ कर अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया। आचाराङ्ग, दशर्वकालिक, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, विपाक आदि अनेक शास्त्र आपने कुछ ही दिनों में कण्ठस्थ कर लिये और सैकड़ों (स्तोक ) थोकड़े भी कंठस्थ किए। आपने अठाणु बोल का बासठिया एक मुहूर्त में याद कर सभी को विस्मित कर दिया ।
आप आशुकवि थे । चलते-फिरते वार्तालाप करते या प्रवचन देते समय जब भी इच्छा होती तब आप कविता बना देते थे ।
एक बार आप समदड़ी गाँव में विराज रहे थे। पोष का महीना था । बहुत ही तेज सर्दी पड़ रही थी । रात्रि में सोने के लिए एक छोटा-सा कमरा मिला। छह साधु उस कमरे में सोये । असावधानी से रजोहरण की दण्डी पर पैर लग गया जिससे वह डण्डी टूट गयी । आपने उसी समय निम्न दोहा कहा :
ओरी मिल गयी सांकड़ी, साधू सूता खट्ट । नेमीचन्दरी डांडी मागी, बटाक देता बट्ट ॥
आपश्री ने रामायण, महाभारत, गणधर चरित्र, रुक्मिणी मंगल, भगवान ऋषभदेव, भगवान् महावीर आदि बनाये थे किन्तु आपश्री उन्हें लिखते नहीं थे जिसके कारण स्वयं लिखते या अन्यों से लिखवाते तो वह बहुमूल्य साहित्य
पर अनेक खण्डकाव्य और महाकाव्य विभिन्न छन्दों में आज वे अनुपलब्ध हैं। क्या ही अच्छा होता यदि वे सामग्री नष्ट नहीं होती ।
आप प्रत्युत्पन्न मेधावी थे । जटिल से जटिल प्रश्नों का समाधान भी शीघ्रातिशीघ्र कर देते थे । आपश्री के समाधान आगम व तर्कसम्मत होते थे । यही कारण है कि गोगुन्दा, पंचभद्रा, पारलू आदि अनेक स्थलों पर दया दान के विरोधी सम्प्रदायवाले आप से शास्त्रार्थ में परास्त होते रहे ।
एक बार आचार्य प्रवर श्री पूनमचन्दजी महाराज गोगुन्दा विराज रहे थे। उससमय एक अन्य जैन सम्प्रदाय के आचार्य भी यहाँ पर आये हुए थे । मार्ग में दोनों आचार्यों का मिलाप हो गया। उन आचार्य के एक शिष्य ने आचार्य श्री पूनमचन्दजी महाराज के लिए पूछा - "थांने मेख पेहरयों ने कितराक बरस हुआ है ।" कविवर्य नेमीचन्द जी महाराज ने उस साधु को भाषा समिति का परिज्ञान कराने के लिए उनके आचार्य के सम्बन्ध में पूछा । "थाने हींग पेहरू ने कितराक बरस हुआ है ।" यह सुनते ही वह साधु चौंक पड़ा और बोला- 'यों कांई बोलो हो ?' आपने कहा 'हम तो सदा दूसरे के प्रति पूज्य शब्दों का ही प्रयोग करते हैं, किन्तु आपने हमारे आचार्य के लिए जिन निकृष्ट शब्दों का प्रयोग किया, उसी का आपको परिज्ञान कराने हेतु मैंने इन शब्दों का प्रयोग किया है।' साधु का सिर लज्जा से झुक गया और भविष्य में इस प्रकार के शब्दों का हम प्रयोग नहीं करेंगे कहकर उसने क्षमायाचना की ।
आपश्री के बड़े गुरुभ्राता श्री ज्येष्ठमलजी महाराज थे जो एक अध्यात्मयोगी सन्त थे । रात्रि भर खड़े रहकर ध्यान योग की साधना करते थे जिससे उनकी वाचा सिद्ध हो गयी थी। और वे पंचम आरे के केवली के रूप में विश्रुत थे। उनके दिव्य प्रभाव से प्रभावित होकर आपश्री भी ध्यान योग की साधना किया करते थे। ध्यानयोग की साधना से आपका आत्मतेज इतना अधिक बढ़ गया था कि भयप्रद स्थान में भी आप पूर्ण निर्भय होकर साधना करते थे ।
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