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________________ ३७० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अप्पा नई वैयरणी अप्पा मे कूड सामलो। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नंदणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण दुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टिय सुपओि ॥ आत्मा ही नरक की वैतरणी या कूट शाल्मली वृक्ष है । आत्मा ही स्वर्ग की कामधेनु और नंदन वन है । यह आत्मा ही अपने सुख और दुःख का कर्ता और भोक्ता है। कोई अन्य ईश्वर इसके पुण्य-पाप का लेखाजोखा नहीं रखता और न पुण्य-पापके फल भोगके लिए स्वर्ग या नरक भेजनेवाला है। बुरे मार्गपर चलनेवाला आत्मा हो शत्रु है और सुमार्ग पर चलनेवाला आत्मा ही मित्र है । _ 'सच्चं लोगम्मि सारभूयं ।' सत्य ही संसारमें सारभूत है। यह था उनका जीवन सूत्र । समाज रचनाका आधारभूत सूत्र बताते हुए उन्होंने अपरिग्रहका उपदेश दिया और बताया कि "घणघन्नपेस्सवग्गेसु परिग्गह विवज्जणं।" धन-धान्य और नौकर-चाकर आदिके परिग्रहका त्याग करना ही सर्वोत्तम है। पूर्ण त्याग संभव न हो तो कम से कम परिग्रह रखकर जीवनको स्वावलम्बी बनाना चाहिए। अचौर्यव्रतको भी समाज रचनाका आधार बताते हुए कहा कि "तं अप्पणा न गिण्हंति नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणं पि नानुजाणंति संजया ॥" संयमी पुरुष स्वयं दूसरेकी वस्तुको ग्रहण नहीं करते, न दूसरों से चुरवाते हैं और न चोरी करनेवाले की अनुमोदना ही करते हैं। उन्होंने दूसरोंके विचारों के प्रति उदारता और सहिष्णुता वर्तनेके लिए अनेकान्तदृष्टिकी साधनाका मार्ग सुझाया कहा । यथा "जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वयई। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ।।" जिस विचारसहिष्णुता के प्रतीक अनेकान्तदर्शनके बिना लोकव्यवहार भी नहीं चलता उस संसारके एकमात्र गुरु अनेकान्त वादको नमस्कार हो।। इस तरह विचारमें अनेकान्त, आचार में अहिंसा, समाज रचनाके लिए अचौर्य, सत्य और अपरिग्रह तथा इन सबकी साधनाके लिए ब्रह्मचर्यका उपदेश देकर अन्तिम समयमें उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य गौतमको लक्ष्यकर जिस अप्रमादका उपदेश दिया था वह है दुमपत्तए पंडुयए जहा णिवडइ राइगणाण अच्चाए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए । जैसे पतझड़के समय पीला पत्ता झड़ जाता है ऐसे ही यह मनुष्य-जीवन क्षणभंगुर है। गौतम, एक क्षण भी प्रसाद न कर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211285
Book TitleNischaynay Sarvagyata aur Adhyatma Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Spiritual
File Size940 KB
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