________________ 86 : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कारणताका बोध होता है यह भी निश्चयनय है / यहींपर कुम्भकारमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है यह अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय है, कारण कि कुम्भकार मिट्रीकी घटरूप परिणतिमें साक्षात निमित्तकारण है, यहींपर चक्रमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है वह उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है, क्योंकि मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें परंपरया अर्थात कुम्भकारका सहयोगी होकर ही चक्र निमित्तकारण होता है, और यहींपर दण्डमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है, वह उपचरितोपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है क्योंकि मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें दण्डनिष्ठ निमित्तकारणता दो परंपराओंसे अनुरक्त है अर्थात् दण्ड चक्रका सहयोगी होता है, चक्र कुम्भकारका सहयोगी होता है और तब कुम्भकार मिटीका सहयोगी होता है विषयको इस रूपमें भी समझा जा सकता है कि मिटीकी घटरूप परिणतिमें मिट्टी उपादानकारण अर्थात् वास्तविक कारण है। यह निश्चयनयका विषय है और यहीं पर कुम्भकार निमित्तकारण होनेसे व्यवहार कारण अर्थात् उपचरितकारण है, यह उपचरित असदभुत व्यवहारनयका विषय है। यहींपर चक्रमें जो निमित्त कारणता है वह उपचरितोपचरितअसदभतव्यवहारनयका विषय है तथा यहीं दण्डकी निमित्त कारणता है वह उपचरितोपचरितोपचरित असद्भुतव्यवहारनयका विषय है। इस तरह यह बात अच्छी तरह समझमें आ जानी चाहिये कि चाहे निश्चयनय हो, अथवा चाहे व्यवहारनय हो, इसमें भी चाहे सद्भूतव्यवहारनय हो अथवा चाहे असद्भतव्यवहारनय हो और इसमें भी चाहे अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हो या उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हों अथवा चाहे उपचरितोपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हो-ये सभी नय अपने-अपने ढंगसे सद्भुतताप्राप्त बस्त्वंशोंको ही विषय करते हैं / इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि निश्चयनयका विषय ही सद्भुत होता है तथा व्यवहारनयका विषय सर्वथा असद्भूत ही होता है। इतना अवश्य है कि निश्चयनय सर्वथा सद्भत विषयको ग्रहण करता है लेकिन चाहे सद्भूतव्यवहारनय हो अथवा चाहे असद्भूतव्यवहारनय हो दोनों ही कथंचित् सद्भूत विषयको ही ग्रहण करते हैं / कोई भी व्यवहारनय न तो सर्वथा असदभत विषयको ग्रहण करता है और न सर्वथा सदभत विषयको ही ग्रहण करता है क्योंकि सर्वथा असदभुत वस्तू गधेके सींगकी तरह सर्वथा अभावात्मक हो जानेसे वह, नय अथवा प्रमाण किसीका भी विषय नहीं होती है। सर्वथा सद्भत वस्तु तो निश्चयनयका ही विषय होती है, व्यवहारनयका नहीं / अन्त में इतना ध्यान और रखना चाहिये कि व्यवहारनयका विषय भी अभेद और स्वाश्रयताकी दृष्टिसे निश्चयनयका विषय हो जाता है और निश्चयनयका विषय भी भेद और पराश्रयताकी दृष्टिसे व्यवहारनयका विषय हो जाता है / जैसा कि पंचाध्यायीमें कहा है "इदमत्र समाधान व्यवहारस्य च न यस्य यद्वाच्यम्" | सर्वविकल्पाभावे तदेव निश्चयनयस्य स्याद् वाच्यम् // 643 / / अर्थात् जो व्यवहारनयका विषय है वहीं संपूर्ण विकल्पोंका अभाव होने पर निश्चयनयका विषय हो जाता है। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण नय पृथक्-पृथक् एक-एक दृष्टि हैं और वस्तु अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तात्मक है, अतः सभी अविरुद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org