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३ / धर्म और सिद्धान्त : ७१
एक जीव कभी दूसरे जीवरूप परिणत नहीं होता, एक पुद्गलाणु कभी दूसरा पुद्गलाणु नहीं बनता और एक कालाणु कभी दूसरा कालाणु नहीं हो जाता। इतना अवश्य है कि सभी वस्तुएँ यथायोग्य एक-दूसरी वस्तुके साथ संयुक्त होकर ही रह रही हैं । इसके अतिरिक्त जीवों और पुद्गलोंमें ऐसी :स्वतःसिद्ध (स्वाभाविक) वैभाविकी शक्ति नामकी विशेषता विद्यमान है, जिसके आधारपर सभी जीव अनादिकालसे यथायोग्य पुद्गलोंके साथ संबद्ध (मिश्रित) यानी एकक्षेत्रावगाहीरूपमें एकमेकपनेको प्राप्त रहे हैं। उनमेंसे बहुतसे जीवोंने यद्यपि पुद्गलोंके साथ विद्यमान अपनी अनादिकालीन उस बद्धता (मिश्रण) को समाप्त कर दिया है, परन्तु उनसे अनन्तगुणे जीव अभी भी उसी बद्धावस्थामें रह रहे हैं। बहुतसे पुद्गल अपनेमें विद्यमान उपर्युक्त वैभाविकी शक्तिके आधारपर अनादिकालसे जीवोंके साथ तो सम्बद्ध हो ही रहे हैं, साथ ही बहुतसे पुद्गल एक-दूसरे पुद्गलोंके साथ भी इसी तरह सम्बद्ध होकर रह रहे हैं ।
जिन जीवोंने पुद्गलोंके साथ अनादिकालसे विद्यमान अपनी बद्धस्थितिको समूल समाप्त कर दिया है वे अब कभी पुनः पुद्गलोंके साथ बद्ध नहीं होंगे। परन्तु पुद्गल एक बार जीवके साथ अथवा अन्य पुद्गलोंके साथ विद्यमान अपनी बद्ध स्थितिको समूल समाप्त करके भी पुन: उस योग्य बन जाया करते हैं। यही कारण है कि वे यथायोग्य जीवों, पुद्गलाणुओं और पुद्गलस्कन्धोंके साथ हमेशा ही बंधते और बिछुड़ते . रहते हैं।
जिस प्रकार वस्तु परिणमन करते हुए भी कभी अपने द्रव्यत्वको नष्ट नहीं होने देती है और न कभी अन्य द्रव्यरूप ही परिणत होती है उसी प्रकार प्रत्येक वस्तुका प्रत्येक गुण परिणमन करते हुए भी न तो अपने गुणत्वको कभी सर्वथा नष्ट होने देता है और न वह कभी उस वस्तुके अन्य गुणरूप अथवा अन्य वस्तुके गुणरूप ही परिणत हो सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुकी अथवा प्रत्येक वस्तुके प्रत्येक गुणकी प्रत्येक पर्याय यद्यपि उत्पाद और व्ययरूपताको धारण किये हुए है। परन्तु इन सभी पर्यायोंमें भी यह व्यवस्था बनी हुई है कि एक वस्तुकी कोई भी पर्याय केवल उसी वस्तुकी पर्याय होती है व एक गुणकी भी कोई पर्याय केवल उसी गुणकी पर्याय होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपता ये तीनों ही उपयुक्त प्रकारसे सतत प्रतिनियतताको ही धारण किये हुए हैं।
प्रत्येक वस्तुमें यथासंभव जो भी द्रव्यपरिणमन होते हैं वे सभी नियमसे स्वपर-प्रत्यय ही हुआ करते है । लेकिन प्रत्येक वस्तुमें जो गुणपरिणमन होते हैं उनमेंसे कुछ तो स्वप्रत्यय होते हैं और कुछ स्वपरप्रत्यय होते
१. (क) सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यस्तेि सर्व एव स्वकीय
द्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचम्बिनोऽपि परस्परमम्बिनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादापतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव्यक्तित्वास्ट्रकोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतूतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः ।
-समयसार, गाथा ३, टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । (ख) पंचास्तिकाय, गाथा, ७ । २. पंचाध्यायी, २-४५ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १९६ । ४. (अ) जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि ण संकमदि दव्वे । -समयसार, गाथा १०३ ।
(आ) समयसार, गाथा ७६, ७७, ७८, ७९ ।
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