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७० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रत्येक वस्तुमें अपने-अपने पृथक्-पृथक् अनन्तगुण विद्यमान हैं वस्तुका जो एक गुण हैं वह उसका कभी अन्य गुण नहीं हो सकता है। अनन्त ही सिद्ध होती है ।
इन्हें धर्मं या स्वभाव भी कहते हैं । " इस तरह प्रत्येक वस्तुमें गुणोंकी संख्या
प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक वस्तुका प्रत्येक गुण परिणमनशील है इसका यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिये कि अगुरुलघुगुणके अतिरिक्त शुद्ध द्रव्यके अन्य गणोंके शक्त्यंशोंमें हानि-वृद्धि होती है । इस प्रकार सभी वस्तुओंकी निम्नप्रकार स्थिति निश्चित होती है
" वस्तुकी आकृति ( प्रदेशवत्तारूप द्रव्यरूपता), वस्तुकी प्रकृति (स्वभाववत्तारूप गुणरूपता और वस्तुकी तथा वस्तुके प्रत्येक गुणकी विकृति (परिणामवत्तारूप पर्यायरूपता) ।"
इस तरह कहना चाहिये कि द्रव्यानुयोग में द्रव्यरूपताके साथ-साथ वस्तुकी अनन्त द्रव्यपयायों तथा वस्तु के अनन्तगुणों और उन गुणोंमेंसे प्रत्येक गुणकी अनन्तगुणपर्यायोंके रूपमें वस्तुका जैनागममें विश्लेषण किया गया है । ४
प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपता और गुणरूपता दोनों ही शाश्वत ( स्थायी) हैं तथा पर्यायरूपता समय, आवलि, मुहूर्त्त, घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत (अस्थायी ) हैं । इस तरह प्रत्येक वस्तुको जैनागममें सत् मानते हुए भी उस सत्ताको उत्पाद, are और धौव्यात्मक स्वीकार किया गया है ।" अर्थात् जैनागममें प्रत्येक वस्तुमें द्रव्य पर्यायों और गुण पर्यायोंके रूपमें तो उत्पाद तथा व्यय और द्रव्यत्व और गुणत्वके रूपमें धौव्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है ।
परिणमन करते हुए भी प्रत्येक वस्तुकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपता प्रतिनियत है । अर्थात् परिणमनमें वस्तु न तो अपने अस्तित्व (सद्रूपता) को छोड़ती है और न ही एक वस्तुकी अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता तथा पर्यायरूपता कभी अन्य वस्तुकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता तथा पर्यायरूपता बन सकती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि परिणमन करते हुए भी वस्तु न तो कभी सर्वथा नष्ट हो सकती है और न वह कभी अन्य वस्तुरूप भी परिणमती है ।
इस प्रकार जीव परिणमन करते हुए भी कभी सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता है और न ही वह कभी अन्य द्रव्यरूप परिणत हो सकता है, वह हमेशासे जीव ही रहा आया है, जीव ही है और जीव ही रहेगा। यही व्यवस्था पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी द्रव्योंमें समझना चाहिये । इतना हो नहीं, १. पंचाध्यायी, १-४८ ।
२. पंचाध्यायी, १-४९, ५२ ।
३. (क) वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि । - पंचाध्यायी, १-८९ ।
(ख) वस्तु यथा परिणामि तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि । - पंचाध्यायी, १-११२ । ४. प्रवचनसार, ज्ञेयतत्वाधिकार, गाथा ९३ ।
safe for यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव विस्तारायतसामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिर्वृत्तत्वाद् द्रव्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारायतवि शेषात्मक गुण रभि निवृत्तत्वात् गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैर्द्रव्यैरपि गुणैरप्यभिनिवृत्तत्वाद् द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । - प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वाधिकार, गाथा १ की टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । ५. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वा० ५ - २९, ३० ।
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