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३/धर्म और सिद्धान्त : ३७
की प्राप्ति हो जाती है उसके व्यवहारसम्यक् चारित्र अनायास ही हो जाता है उसे उसकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है। हमारे उपर्युक्त कथनसे इस मान्यताके खण्डित होने में एक आधार यह भी है कि आगममें व्यवहारसम्यक चारित्रको निश्चयसम्यकचारित्रमें कारण बतलाया गया है, इस तरह कारण होनेकी वजहसे जब जीवमें व्यवहारसम्यक्चारित्रका निश्चयसम्यक्चारित्ररूप कार्यके पूर्व सद्भाव रहना आवश्यक है तो इस स्थितिमें फिर यह बात कैसे संगत कही जा सकती है "कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है उसको व्यवहारसम्यकचारित्र अनायास ही हो जाता है-उसे उसकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है ?" इस विषयमें दूसरा आधार यह भी है कि जो व्यक्ति व्यवहारमोक्षमागं या व्यवहारसम्यग्दर्शदादिकके ऊपर लक्ष्य न देकर केवल निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकके ऊपर लक्ष्य देनेकी बात कहते हैं वे भी निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यकदर्शनादिककी उपलब्धिके लिये पुरुषार्थ करनेका उपदेश जीवोंके देते हैं तो इसका आशय यही होता है कि प्रत्येक जीवको निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धिके लिये व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहार सम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिका ही प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकी उपलब्धिके लिये जो भी प्रयत्न किया जायगा वह प्रयत्न व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकके अलावा और कुछ नहीं होगा। अर्थात् उस प्रयत्न (पुरुषार्थ) का नाम ही व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिक है जो निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धिके लिये किया जाता है।
एक बात और है कि हमारे पूर्व प्रतिपादनके अनुसार व्यवहारसम्यक्चारित्रका अपर नाम सरागचारित्र है जैसा कि निश्चयसम्यकचारित्रका अपर नाम वीतरागचारित्र है और यह बात निर्विवाद है कि दशवें गुणस्थान तक जीवमें सरागचारित्र ही रहा करता है, वीतरागचारित्र नहीं, तथा यों भी कहिये कि दशवें गुणस्थान तक ही सरागचारित्र रहा करता है, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं, इस तरह इसका अभिप्राय यह होता है कि सरागचारित्रका अभाव हो जाने पर ही वीतरागचारित्रकी उपलब्धि जीवको हुआ करती है और इसका अभिप्राय भो यह हुआ कि व्यवहारसम्यक् चारित्रका अभाव हो जाने पर ही निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि जीवको हुआ करती है अथवा यों कहिये कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाती है उसके फिर व्यवहारचारित्रका अभाव ही हो जाया करता है। इस तरह तब इस बातको कैसे संगत माना जा सकता है कि 'जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाने पर व्यवहारसम्यकचारित्रकी उपलब्धि अनायास हो जाती है ?" और यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ३०५ की टीकामें व्यवहाराचारसूत्र' का उद्धरण देकर व्यवहारसम्यकचारित्रको तब तक अमृत-कुम्भ कहा है जब तक जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि नहीं हो जाती है तथा भगवान कुन्दकुन्द. ने उसी व्यवहारसम्यकचारित्रको तब विषकुंभकी उपमा दे दी है जब जीवको निश्चय सम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाती है।
इस तरह यह बात निर्णीत हो जाती है कि जब तक जीवको निश्चयसम्यक-चारित्र की उपलब्धि नहीं हो जाती है तब तक उसके लिए मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे परंपरया कारणके रूपमें अथवा निश्चयसम्यकचारित्रके साधनके रूपमें व्यवहारसम्यक चारित्र नियमसे उपयोगी सिद्ध होता है। इसलिये मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्तिके लिये प्रत्येक जीवको व्यवहारसम्यक चारित्रको धारण
१. समयसार, गाथा ३०५, आचार्य अमृतचन्द्र टीका। २. समयसार, गाथा ३०६, ३०७ ।
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