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डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय
इसमें 607 गाथाएँ है। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान जिनेन्द्र के उपदेश 36 अध्ययनों में संग्रहीत हैं। उत्तराध्ययन के "उत्तर" पद का अर्थ क्रमोत्तर बत अध्ययन पद का अर्थ बताते हुये कहा गया है कि जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम अर्थात् परिच्छेद होता है या जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वही अध्ययन 53 है। चूँकि अध्ययन से अनेक भवों से आते हुये कर्मरज का क्षय होता है, इसलिए उसे भावाध्ययन कहते हैं। इसके पश्चात् आचार्य ने श्रुतस्कंध 54 का निक्षेप करते हुए विनयश्रुत, परिषह, चतुरंगीय, असंस्कृत आदि छत्तीस अध्ययनों की विवेचना की है। इस नियुक्ति में शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। जैसे गंधार, श्रावक, तोसलिपुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कन्दपुत्र, पराशरऋषि, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्ध एवं हरिकेश मृगापुत्र आदि की कथाओं का संकेत है। इसके अतिरिक्त निह्नव, भद्रबाहु के चार शिष्यों एवं राजगृह के वैमार पर्वत की गुफा में शीतपरीषहों से एवं मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का भी वर्णन है। इसमें अनेक उक्तियाँ सूक्तों के रूप में हैं। जैसे "भावाम्म उ पव्वज्जा आरम्भपरिग्गहच्चाओ55 अर्थात् हिंसा व परिग्रह का त्याग ही भावप्रव्रज्या है। काव्यात्मक एवं मनोहारी स्थलों का भी अभाव इस नियुक्ति में नहीं है। जैसे
अविरुग्गयए सूरिए
वइयथुम गय वायसे
भित्ती गमए व आपने
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सहि सुहिओ हु जणो न वुज्झई 56
अर्थात् सूर्य का उदय हो चुका है, चैत्यस्तम्भ पर बैठ-बैठ कर काग बोल रहे हैं, सूर्य का प्रकाश दीवारों पर चढ़ गया है किन्तु फिर भी हे सखि ! यह अभी सो ही रहे हैं।
4. आधारांगनियुक्ति
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उत्तराध्ययननियुक्ति के पश्चात् एवं सूत्रकृतांगनिर्युक्ति के पूर्व रचित यह नियुक्ति आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर है। इसमें 347 गाथाएँ हैं। आचारांगनिर्युक्ति के प्रारम्भ में मंगलगाथा है, जिसमें सर्वसिद्धों को नमस्कार कर इसकी रचना करने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् आचार, अंग श्रुत, स्कन्ध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र - परिज्ञा, संज्ञा और दिशा का निक्षेप किया गया है।
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आचारांग का प्रवर्तन सभी तीर्थंकरों ने तीर्थ प्रवर्तन के आदि में किया एवं शेष ग्यारह अंगों का आनुपूर्वी से निर्माण हुआ 58, ऐसा आचार्य का मत है। आचारांग द्वादशांगी में प्रथम क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि इसमें मोक्ष के उपाय का प्रतिपादन किया गया . जो कि सम्पूर्ण प्रवचन का सार है। 59 अंगों का सार आचारांग है, आचारांग का सार अनुयोगार्थ, अनुयोगार्थ का सार प्ररूपणा, प्ररूपणा का सार चरण, चरण का सार निर्वाण एवं निर्वाण का सार अव्याबाध है, जो साधक का अन्तिम ध्येय है। 60 आचारांग में नौ ब्रह्मचर्यामिधायी अध्ययन, अठारह हजार पद एवं पाँच चूड़ाएँ हैं। 61
नौ अध्ययनों में प्रथम का अधिकार जीव संयम है, द्वितीय का कर्मविजय, तृतीय का सुख-दुःख तितिक्षा, चतुर्थ का सम्यकत्व की दृढ़ता, पंचम का लोकसाररत्नत्रयाराधना, षष्ठ का निःसंगता, सप्तम् का मोहसमत्थ परीषहोपसर्ग सहनता, अष्टम् का निर्वाण अर्थात् अन्तक्रिया एवं नवम् का जिनप्रतिपादित अर्थश्रद्धान है।
द्वितीय उद्देशक में पृथ्वी आदि का निक्षेप पद्धति से विचार करते हुये उनके विविध भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ की गईं हैं। इसमें वध को कृत, कारित एवं अनुमोदित तीन प्रकार का बताते हुए अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, सकाय और वायुकाय जीवों की हिंसा के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है।
द्वितीय अध्ययन लोक विजय हैं, जिसमें कषाय विजय को ही लोकविजय कहा गया है। 62
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